मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

कहे के पसरे खालीपन में मेरा सुनना ठिठुर रहा था

रात कि परछाई थी जो कल आने का कहती भुरभुरा रही थी

कहे के पसरे खालीपन में मेरा सुनना ठिठुर रहा था

धरती कोई कमरा थी किसी के ठंडे तकिये पर रखी जिसमे एक कमरे में चाय पीते किसी को किसी कि याद के भूत से पीछा छुड़ाने कि शहदीली कोशिश में जीने मरने के पुल से छलांग लगानी थी

अनिद्रा का
स्वप्नरहित
तालाब
तब
जीभ
काट
रोयेगा

रोने के भरेपन में मेरी देह हल्की हो तैरेगी 

रविवार, 1 दिसंबर 2013

स्मृति की उड़ान स्मृति सी


आकाश था अपने नीले के पड़ौस में व्यापे सफेद में 
जिसमे स्मृति की उड़ान स्मृति सी 

कोई पदचाप थी बाद में सीढियों पर जो नीद में सपनों की चट्टानों पर चिड़िया की चीख सी आकाश की छाती को बींधती 

इस दृश्य में मैंने पुकारा एक नाम 

एक नाम 

ठिठुरता कोई आया और उस पुकार को अपने सीने से लगाता 
जैसे बुहारता चला गया 

एक नाम 
आकाश है 

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

आत्मा का आकाश भी अनाथ था

शाम आज देखा शाम ने

दिन ही नही ढला
देह को छाया
ने भी
एक पल को
बिसार देने का
अहसास कराया

तब

आत्मा का आकाश
भी
अनाथ था

फिर छाया ने देह को
खुद में
समाया

अभी रात है मित्र
जो तुम हो

और रात का कोई साया
शाम नही


शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

हिलती रही हरीतिमा अनजान बन

बारिश ने बूंदे नही 

बरसाए 
शब्द 

धरा पर सुना
जड़ो ने 

और मुस्कुरा दी 

हिलती रही 
हरीतिमा अनजान बन 

छाया सी 
चेहरे पर 
तुम्हारे 

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

उलझी कांटो में परछाई

उलझी कांटो में
परछाई

तब नीले  आसमान
ने खुद को
सफेद पक्षी बना

अपनी छाया का बढ़ा हाथ
उसे बाहर निकाल
परवाज दे दी

अब उस परवाज में
कांटे भी
महक रहे 

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

पीले पत्ते पर कीड़े सी धूप

पसलियों को रात
अंधेरी नीद के
मुरझाते सपने ने
रिसती चट्टान सा देखा

पुतलियो की जगह
राख के
ढूह

होटों पर ठंडा धुआँ
अंधे
सांप सा

आत्मा जैसा कुछ था
शायद

जहाँ पीले पत्ते पर
कीड़े सी
धूप


हवा में से गुजरा जैसे ईश्वर का साया

इतने दूर होने से
हमने अपना इतना सघन सामीप्य
यूं पाया

हवा में से गुजरा जैसे
ईश्वर का साया

जल में से
साए का ईश्वर

अग्नि में से
अग्नि की शीतलता

तुम्हारे उच्चारण में
मेरी आत्मा निर्बंध

स्मरण ने  स्पर्श की
समस्त हरीतिमा को
फलवती किया

इतना समीप  जैसे
आकाश में
आकाश



सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

मुस्काता आंसू हवा को भिगो गया

हवा ने सांझ
हवा से कुछ
कहा

सुन जिसे
मुस्काता आंसू
हवा को
भिगो गया

मैने एक हरा गुलाब लिया
तुम्हारी आवाज के तार
पर बिछा दिया

अभी हवा अपनी बगल में
झांकती
सकुचाती सिसक रही 

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

स्मृति एक सिसकी में घुट गयी

झर गया 
हरे पत्ते के साथ 
नीला आसमान 
भी 

तुम्हारे ललाट 
पर जैसे 
मेरा हाथ 

मेरे सर पर 
चेहरा तुम्हारा 

स्मृति एक सिसकी में 
घुट गयी 


रविवार, 29 सितंबर 2013

तुम एक साथ भरे हुए…उफनते हुए और खाली…खोखले कैसे रह लेते हो ?


प्रिय ..
मुझे समझ नहीं आता कि तुम हो क्या ? कभी तो तुम ठंडे-मीठे जल से लबालब कुंए से लगते हो जिसमें से यदि जल को नहीं खींचा गया तो वह उफन कर बाहर आ जाएगा और जब उसे खींचने के लिए पात्र भीतर उतारते हैं तो वह भीतर और भीतर उतरता जाता है.
तुम एक साथ भरे हुए…उफनते हुए और खाली…खोखले कैसे रह लेते हो ? तुम्हें हो क्या गया है ? एक बार क्यों नहीं अंतिम स्तर पर की गई कार्यवाही की तरह खुद को रोक लेते.
मैं अब और अधिक इंतजार नहीं कर सकती.
मुझे तत्काल अपने निर्णय से अवगत कराओ. वर्ना इसे मेरा अंतिम पत्र समझो. यह और बात है कि इसके साथ ही तुम्हारे अन्तहीन पत्रों का विलाप…जिरह शुरू हो जाएगी और तुम इससे भी भली भांति परिचित हो कि तुम्हारी उस तरह की किसी बात का मुझ पर असर नहीं होगा. और मेरे लिए यह बहुत दुखद होगा. क्या तुम यह चाहते हो कि मुझ पर तुम्हारी किसी बात का कोई असर न हो ?
कहीं तुम यही तो नहीं चाहते ?

मैं चाहता हूँ न तो तुम मुझे आकंठ झूठ में डूबा समझो न ही मेरी बात में पारदर्शी सच्चाई ढूंढो.


प्रिय…
रात मैं सो न सका. इस वजह से मेरा बदन टूट रहा है. मगर तुम्हारा पत्र आए इतने दिन हो गए हैं
कि जवाब के इन्तजार में तुम आइन्दा मुझे पत्र न लिखने के लिए खुद को समझा रही, बटोर रही, कस रही होगी यही सोच किसी तरह थकान को भुला तुम्हें लिखने बैठ गया हूं.
मेरे सपनों को लेकर तुम इतनी परेशान हो, यह जान मुझे बहुत चिन्ता और दुख हो रहा है. इस बार के तुम्हारे पत्र में तो चिन्ता का स्थान आशंका ने ले लिया है. तुम्हारे पत्र की आशंका-भय से मैं खुद के बारे में अनुमान लगा रहा हूं.
तुमने लिखा कि जो कुछ मुझे लगता है वह मैं बगैर यह चिन्ता किए कि कोई इसे पढ़ रहा है या कि पढ़ेगा, बस लिखता चला जाऊं और तुम्हें भेज दूं, भेजता रहूँ.
मेरी जान, मैंने यह करने की बहुत कोशिश की. कई बार लिखने बैठा, मगर कुछ ही देर बाद लगने लगता जेसे यह वह नहीं जो मेरे भीतर चल रहा था. जो मैं सोच रहा था. यह तो मैं कुछ और ही लिखने लगा हूँ . बस्स. फिर वही मौन.
..रुकावट…थकान…निराशा…संशय…भय.
फिर तुमने यह सुझाया कि मैं यह बात ही दिमाग से निकाल दूं कि मैं तुम्हारे लिए लिख रहा हूँ . बस यही सोच लिखने बैठ जाऊं कि मैं तो वह बात पहले ही पढ़ चुकी हूँ , तुम चाहे लिखो या न लिखो. मगर इससे भी मुझे कोई राहत नहीं मिली.
सच कहूं तो मैं पिछले लंबे अर्से से तुमसे छल करता रहा हूँ. किसी न किसी रूप में. कि हाँ, इस बार नई शक्ल में लिख रहा हूँ. हद तो तब हो गई जब इन दिनों मैंने महसूस किया कि यह मेरी आदत में तब्दील होता जा रहा है.
आशा है यह सब सुझाते तुम मुझे पागल या बीमार नहीं मान रही हो. यह बात और है कि पागल और बीमार के फर्क को इस वक्त मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.
मैं इन दिनों सबस से झूठ बोलता हूँ. सब कुछ झूठ. मैं जो कुछ नहीं करता, नहीं देखता वही दिन में सबको बताता रहता हूँ और मुझे यह देख दुखद हैरानी होती है कि किसी को भी मेरी बात पर कोई शंका-संशय नहीं होता.
इस वक्त इसलिए तुम्हें पत्र लिखते वक्त मेरी आत्मा कांप रही है कि कहीं तुम मेरी बात को झूठ न मान लो.
कि मेरी बात को हूबहू तुम सच न मान लो.
मैं चाहता हूँ न तो तुम मुझे आकंठ झूठ में डूबा समझो न ही मेरी बात में पारदर्शी सच्चाई ढूंढो.
मैं तुमसे पीछा नहीं छुड़ाना चाहता मगर मैं यह भी नहीं कह सकता कि तुम्हारे पूरे अहसास के बगैर मै रह लूंगा.
शायद मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ यूं रहो जैसे मैं खुद के साथ आधा-अधूरा रहता हूँ .
तुम यदि कुछ कर सकती हो मेरे लिए तो यही कि अपना विश्वास मुझसे टूटने न दो.
पता नहीं यह पत्र है या फिर किसी पलायन का खुलता मुंह. यदि यह पत्र तुम तक पहुंच जाए तो….खैर छोड़ो.
अभी यह पोस्ट कहां हुआ है?
अब मेरी पलकों पर नींद के भारी…गर्म….ठंडे पत्थर गिर रहे हैं.
****
मैं शायद सो गया था. नींद किसी चट्टान की तरह मेरी देह पर थी जिसके नीचे मैं दबा पड़ा था.
शाम को करीब छह बजे मेरी ऑंख खुली. और मुझे खुद को कस कर पकड़ाना पड़ा. अपने भीतर के इतने हल्केपन से मैं डर गया था. लगा यदि खुद को कस कर नहीं पकड़ा-जकड़ा तो उड़ जाऊंगा. कमरे में हर चीज या तो औंधी पड़ी थी या उड़ रही थी. मेज पर पानी का गिलास गिरा पड़ा था…. सारे कागज गीले हो चुके थे. अचानक मुझे पत्र का ख्याल आया. मैंने खुद को कसना छोड़ा और उड़ता सा मेज तक पहुंचा. कहीं वह पत्र न भीग गया हो, बड़ी मुश्किल से लिखा था. अगर इस बार पोस्ट न हुआ तो फिर लंबा अंतराल जम जाएगा.
मेज पर सारे सफेद कागज भीग चुके थे.
वह पत्र कहीं नहीं था.
मैं बहुत देर तक कुर्सी पर बैठा उसे ढूंढता रहा, हाथों में हरकत कम, नजरों में बेचैनी ज्यादा थी.
केवल सामने रैक में घड़ी के नीचे उसका अन्तर्देशीय दबाया पड़ा था. जिसे मैंने पिछले सप्ताह आने के बाद से खोला नहीं था. यही सोच कर कि उसके भीतर क्या लिखा है यह मैं जानता हूँ , यही सोच कर मैंने दिन में उसे पत्र लिखा था कि….मेरी आँख लग गयी.
अब वह पत्र उन गीले कागजों में कहीं नहीं दीख रहा था.
मैं कुर्सी पर पूरी तरह लुटा पिटा खुद को देख रहा था. खुद पर शर्म भी आ रही थी. मैंने जबकि कभी नहीं चाहा था कि कोई भी मुझे या खुद मैं भी खुद को यूं देखूं कि शर्म आने लगे. हिकारत होने लगे.
सामने घड़ी के नीचे तुम्हारे पत्र को देख मेरी रुलाई फूटने लगी.
****

शनिवार, 28 सितंबर 2013

सिगरेट के धुंए में एक चेहरा था जो मेरे चेहरे को चूम रहा था .

 आसमान में बादल थे तब कोई चाँद की देह पर से त्वचा हटा रहा था.
बूंदे अँधेरे में पत्तों और पंखो पर गिर रही थी .
मिट्टी कलर के कपड़े पहने कोई अपने कमरे में भीग रहा था जिसे याद कर कोई पुरानी इमारत की ढहती सीढ़ियों पर बैठा सूखता झर रहा था .
फिर अचानक किसी ने पलके खोली तो पाया किसी की पलके आंसुओं में भीगी है , उस डबडब में किसी के ललाट पर कोई हाथ था.
बाजुओं से किसी के फिसलने का स्मरण कंठ में घुट रहा था और पसलियाँ सूखे तिनको के घर सी दरक रही थी .
तब एक पीली दीवार पर दो छायाएँ खुद के करीब आने का सपना देख रही थी  .
अभी उस जगह एक कुएँ में कोई उतर रहा है जिसे पीछे से आवाज देने वाला आज मौन है .

एक पीली चोंच वाली चिड़िया पीपल के झरते पत्ते को लिए दूर देश की और देख रही थी .
किसी की पीठ पर यह सिहरन कैसी .
कंधे पर यह चिन्ह कैसा .

सिगरेट के धुंए में एक चेहरा था जो मेरे चेहरे को चूम रहा था .

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

यदि पिता कहीं छिप कर देख रहे होंगे


मैं एक विस्मृत सड़क पर चला गया था. अकेली और अपनी उदासी में तपती बिखरती सड़क. जिस पर चलते चलते एक सीमा बाद अहसास होता कि मैं सड़क पर नहीं बल्कि खुले मैदान में चल रहा हूं. वह सड़क और मैदान एक दूसरे में खोए थे. मैं उनमें खोता फिर बाहर आ गिरता तब खुद पर झुके मुझ को सड़क सूनी आंखों से देखने लगती. इसी सड़क पर कभी मैं अपने पिता के साथ दातुन करता साथ चलता था… वे सुबह की सैर के नाम सैर तो न्यूनतम करते बल्कि उनके पैरों में किसी परेड की सी झलक अधिक दिखायी देती थी. चाहते रहे थे कि सैर के वक्त मैं उन्हें देखूं और सीखूं कि कैसे पैर से पैर मिला कर अनुशासित पदचाप के साथ एकाग्र हो चला जाता है. कैसे इससे हमारा भटकता मन, ध्यान नियंत्रण में रहता है. इसी एकाग्रता से, नियंत्रण से तब हम सही अर्थो में दातुन कर पाते हैं. हमें बीच में अधिक समय नहीं रहना चाहिए बल्कि दांतों को दातुन के हवाले या दातुन को दांतों के हवाले कर देना चाहिए. फिर हमें देखना चाहिए कि वे किस कर्मठता, संलग्नता, निष्ठा से एक दूसरे के प्रति अपना धर्म निबाहते हैं.
उस सड़क पर मैं था.
लगा जैसे पिता अपनी परेडनुमा सैर में मगन कहीं बहुत दूर निकल गए हैं और यह भूल गए हैं कि उनके साथ मैं भी था. पहले ऐसा होने पर मैं अपनी चहलकदमी को दौड़ने में तब्दील कर उन तक पहुंच जाता था और पास आते ही यूं चलने लगता जैसे यूं ही चलता आ रहा हूं, पीछे से ही.
वे पीछे नहीं देखते थे.
मैं बहुत देर तक आगे देख कर नही ंचल सकता था. मुझे थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीछे देखने की तड़प उठती कि देखें कितनी दूर आ गए हैं… कितना पीछे छूट गया है.
तब भी मैं पीछे छूट गए और आगे बचे का सही सही अनुमान नहीं लगा पाता था… आज तो बिल्कुल ही नहीं.
आज तो….
जहां खड़ा हूं वहां से न आगे बढ़ पा रहा हूं न पीछे जा पा रहा हूं. शाम का ठिठका अंधेरा अब जम चुका है.
मैं उस जमने में कहीं धंस गया हूं. सड़क और मैदान की जगह अंधेरे का पसारा दीखता है.
दूर से यह दृश्य कैसा दीखता होगा ?
यदि पिता कहीं छिप कर देख रहे होंगे (जब कि उन्हें छिप कर देखने की आदत बिल्कुल न थी और मुझ में तब से अब तक कुछ भी स्पष्टतः खुल कर देखने की हिम्मत नहीं है) तो उन्हें मैं अंधेरे में डूबे सड़क और मैदान के गाढ़े तरल में किसी ढीठ ठूंठ सा खड़ा दीख रहा होऊंगा.
मैं ठूंठ सा खड़ा था और मेरे सिर पर चन्द्रमा किसी नन्हीं चिड़िया सा फुदकता आ बैठा था. पहले तो कुछ देर मैंने यह सोच कर सांस भी रोके रखी कि कहीं सांस की हलचल से आवागमन से यह उड़ न जाए … इसकी सांसें हड़बड़ा अपना मार्ग न भटक जाए…. फिर धीमे धीमे सांसों के काफिले को आगे-पीछे जाने की इजाजत किसी कुशल यातायात नियंत्रक की तरह देने लगा.
उनकी आवाजाही से जब मेरी देह सध गयी तो मैंने उसी सधाव की लय में उस चन्द्रमा ( या चिड़िया ) को अपनी हथेली में ले लिया. वह कोई ऐसा आईना था या चांदी का चमकता कोई ऐसा थाल जिसमें कभी तो चन्द्रमा रह जाता कभी केवल चिड़िया ….
और…. कभी चन्द्रमा की छाती में अपनी उड़ान में स्थिर चिड़िया…. मैंने इसी दृश्य को अपने भीतर उतारा और बाहर आ उसी सधाव से लय से पुनः चन्द्रमा को मेरे सिर के ऊपर थोड़ा सा ऊपर रख दिया… यूं कि झटका न लगे. यूं जैसे कोई दोना… कोई कागज की नाव धारा को सौंप दी जाए और धारा पहले तो कुछ संकोच कुछ व्यस्तता से परेशान दीखे फिर सहज रूप से समर्पण को स्वीकार ले और आगे बढ़ जाए.

बुधवार, 25 सितंबर 2013

मैं छत पर खड़ा सबसे धुंधला तारा ढूंढ रहा था.


प्रिय…
मैं तुम्हें मजबूर कभी नहीं करना चाहती. मगर यह बेचैनी तुम्हारी थी कि तुम मुझे कुछ बताना..कहना चाहते थे. मैं फिर कहती हूँ तुम मुझे भूल जाओ और मुझे बताओ. अब बस इतना ही कहने के लिए यह पत्र लिखा है. इस आशा में कि किसी दिन तुम, किसी भी दिन, तुम केवल मुझसे साझा करोगे. यदि तुम्हें मालूम हो कि वह क्या है जो तुम साझा करना चाहते हो तब भी…और तब भी जब कि तुम्हें मालूम न हो कि तुम मुझसे क्या साझा करना चाहते हो.
हर तरह से होना एक जादू है. जैसे कि हर तरह से होना जादू नहीं भी है. इसलिए प्रतीक्षा और नाउम्मीदी दोनों में ही मैं तुम्होरे साथ भी हूँ और नहीं भी.
****
मैं छत पर खड़ा सबसे धुंधला तारा ढूंढ रहा था.

धुंधलका मेरी प्रकृति के सबसे नजदीक की कोई अनिवार्य नियति थी … है.
पिता कहते थे कि कुछ भी कहो, लिखो तो पहले ही शब्द से नाकेबन्दी कर दो. कील ठोक दो. कोई है जो इस इलाज के अलावा किसी भी तरह काबू में नहीं आने वाला. वह दुश्मन है या सगा… इससे फर्क नहीं पड़ता. ऐसा कील ठोको कि वह बिलबिला उठे और अपने जख्म तक उसकी जबान न पहुंच सके. उसे अपने वश में कर लो. वशीकरण के बाकी सभी मंत्र यन्त्र व्यर्थ है.
मगर मेरा मानना कुछ और ही था, मानना भी क्या था बल्कि मेरे लिए कोई भी कील एक हीबार में सही जगह ठोक देना असंभव था. यहां तो पहली कील मैं खुद में ही उतरते महसूस करता था. मैं कील हाथ में लिए उस जगह तक अगर किसी तरह पहुंच भी जाता तो मन में यह ख्याल उठता कि कील ठोक देना आखिरी तरीका है. इसमें नया क्या है ? मुझमें औरों में फिर फर्क ही क्या है ? कील हाथ में हो सामने की जगह में उसकी सिहरन फूटने लगे यह कहीं ज्यादा बुनियादी सफलता है. इस बुनियादी सफलता के मौलिक सम्मोहन में यदाकदा झूमता-झूलता भी रहता.
मगर उधर मेरे खंड खंड व्यक्तित्व की एक व्यथा कथा और भी थी. जब में कुछ कह लेता तो अस्पष्ट स्वरों का कोहराम हैरान परेशान किए रहता कि जो मैं कहता हूँ वह मेरे जिए गए से सर्वथा भिन्न… विपरीत होता है. भयावह अन्तर का ऐसा पाट जिसे मैं किसी भी दलील से भर नहीं पाता था.
तब या तो यह डायरी मुझे अपने में पनाह देती या वे पत्र जो मैं लिखते न लिखते जीता रहता था, जिनकी अदृश्य निरंतरता से मेरा खंड खंड व्यक्तित्व किसी तरह निर्णायक टूटन से बचा रहता था.
मैं झूठ और अवास्तविक के बीच की थकी…लगभग निरुद्देश्य आवाजाही में जागता… ऊंघता रहता.
सबसे धुंधले … कंपकंपाते तारे की तरह.

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हारमोनियम में से निकलते सांप ने कहा मैने एक भी सुर ऐसा नही छोड़ा जिसका गला और पसलियाँ न मरोड़ दी हो।

सभी शुभ काम जिन श्राद्ध के दिनों में वर्जित है उन्ही दिनों के शुरू में ही मै अपने वादे  अनुसार तुम्हारा जी दुखाने आ गया हूँ।
क्या मेरा भोग मेरी पुकार सुन  मेरी छत पर उतरोगे, मेरे शब्दों को चुगोगे।
मै तुम्हारे जाने के बाद कोई श्राद्ध नही करूंगा ये कह तो दिया था मैने, तुम्हारे सीने पर अपने शब्दों के सांप छोड़ तो दिए थे मैने।
मेरे पिता मेरी माँ  मेरे मृत मित्र मेरे जीवित मृत मित्र तुम्हारा जीवित मृत मै तुम्हारी यादो की पसलियों को उलट पुलट रहा हूँ तुम मेरी।
अभी जब मेरा खो चुका अपना अधूरा उपन्यास उस मित्र की दराज में मिला जिसके लिए मै मर चुका हूँ उसे मैने  मरण में खिलखिलाते देखा तो पाया चिता की राख उड़ रही है हमारे चेहरो पर।

वह जो आधी रात बर्फ़ीली रात स्वर्ग का द्वार देख लौट रहा था अपने कमरे के दरवाजे पर किसी सूखी डाल  सा गिरा पडा मिला।
उसकी खोपड़ी खुल चुकी थी और उसकी बाहर निकल हंसती पुतलियों में स्वर्ग की सीढ़ियों के टुकड़े थे उसकी मवाद से भरी जांघ में रात में खुद उसी के द्वारा लगाया पांचवा आख़िरी इंजेक्शन था।  उसके दाहिने हाथ की एक अंगुली यूँ सीधी तनी थी जैसे अभी अभी सूरज को लगभग छू चुकी हो।
रसोई में ठंड में ठिठुरती बिल्ली के पंजो में एक चूहा सहमा सा लेटा था जिनकी तरफ उसकी गर्दन मुडी थी।

अभी श्राद्ध के दिन ये लापता हुआ लिखा मिला और तुम लापता हो गये. मरना और लापता होना इन दोनों ने मुझे मैने  इन्हें हमने तुम्हे जीवन भर मारा है। शुभ काम मृत को और मारना है अंतिम दम तक। यही श्राद्ध कर्म है। ताकी किसी दिन कोई हमें भी अधमरा न छोड़ दे।

अब रोज सुबह अपने शब्दों के विलाप और कोहराम और बददुआ लिए तुम्हे कोसूँगा और तुम आकाश में किसी काली रेखा से कांपोगे।

वह अपने कमरे में बिस्तर पर सपने देख रहा है कि  कोई उसे सपने देखते देख रहा है।
नीचे गुसलखाने में कौन सिसक रहा है ?
तकिये के नीचे दबा रखी सूखी अदरक किस ने खाई ?
हारमोनियम में से निकलते सांप ने कहा मैने एक भी सुर ऐसा नही छोड़ा जिसका गला और पसलियाँ न मरोड़ दी हो।
सब कुछ ठीक है यह देख नामुरादों ने कहा अब कुछ नही बचेगा।

[बरसों से अधूरा उपन्यास जो श्राद्ध के दिनों में दोबारा चला है ]

रविवार, 18 अगस्त 2013

अभी केनवास पर एक छाया चाकू सी गिर रही है

अधूरी कविता या अधूरे चित्र की तरह शाम को एक सूखा बरगद याद आता है
जिसके नीचे बिल्ली द्वारा अधखाये कबूतर सा कोई पंख -पंख इधर उधर बिखरता है।

मेरे लिए बादलो में दोड़ते तारो को रोक देने वाले हाथ
पाताल से ओक भर  शीतल जल लाने वाले हाथ


अभी केनवास पर एक छाया चाकू  सी  गिर रही है




गुरुवार, 15 अगस्त 2013

अभी जिस गले से तुम फफकोगे वह भी तुम्हारा नही।

अक्सर शाम को लगता है जैसे बाजुओं में किसी ने अंतिम सांस ले अपनी देह गीली कच्ची  शाख सी ढीली छोड़ दी है जिसे मैं सम्हालने  में ढहता जा रहा हूँ।
जब तक हम नही मरते तब तक हम यूं ही मरते हैं.
फिर मरे अंग में ढीठ हरकत होती है और हम खुद को उठा खुद में गिर जाते है।
पूरा दिन सूना आँगन और घड़ी की टिक टिक हमारे भीतर पसरते जाते है जैसे रेतीला टीला धीमे धीमे सब कुछ को खाता आगे पसरता जाता है.
कमरे में किताबें और तस्वीरे हमारा इन्तजार करती है जिन्हें कुछ देर के लिए दीमको ने खाने से छोड़ दिया है।  यह उनका चश्मा है जिससे उनने मुझे आख़िरी बार टेढ़ी नजरों से देखा था, क्या उन्हें , मुझे तब पता था ?
ये उनकी चप्पले जिन पर आख़िरी भ्रमण की रेत थी।
अभी जिस गले से तुम फफकोगे वह भी तुम्हारा नही।
बाहर ठंडा भीगा अन्धेरा है जिस पर अभी तुम नंगे पाँव चलोगे। 

सोमवार, 12 अगस्त 2013

आंसुओं की जगह हो सकती है किरचें

आईने के आजू बाजू 
अन्धेरा जो है 
उसे 
छेड़ो मत 

वह किन्ही चेहरों का 
छूटा स्मरण है 

और जो दीखता है 
वह  
दीखने का 
सूना आवाहन 

तुम जहां हो 
वहीं धंसे रहो 
वहीं से आईने का झरना 
फूट पडेगा 

अभी अभी एक छाया गुजरी 
बीचोबीच कटी 

रक्त के धब्बे कवि के चेहरे पर गिरे 

जब सब सो जायेंगे बिस्तरों 
कब्रों में 
एक कवि
स्याह आसमान में 
किन्ही पलको को चूमेगा 
और 
उसके चेहरे पर आंसुओं की जगह 
हो सकती है 
किरचें 

ठंडी और तीखी 


रविवार, 11 अगस्त 2013

न भूलने ने बहुत मारा

लगा जब
भूल रहा हूँ सब
तब
न भूलने ने
बहुत मारा

दो दीवारों मध्य
जैसे
ढह गयी हो रात

अपना आप उठाया
और
चीलों के
हवाले
कर
दिया

शनिवार, 10 अगस्त 2013

झांकता हर खिड़की से एक ही चेहरा

रात की रेल
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घने जंगल को चीरती
दौड़ी जाती
धड़ -धड़ --धक

झांकता हर खिड़की से
एक ही चेहरा

बाहर हर पेड़ की हर पत्ती
हर जीव हर पक्षी हर रंग में
मैं अपनी ही जगह घूमता

रेल अपनी पूंछ में बांधे
घुमाती
जंगल समूचा

किसी सुबह धूप  में रेल 
यूं पड़ी मिलती
जैसे सांप ने
उतारी हो केंचुली

पेड़ों - पक्षियों -जीवों ने भी
जीवन का भारी चोला
उतार फेंका हो 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

मन्त्रमुग्धा

बरसों बाद
देखी देह
निर्वसन

मछली -सी
बल खाती
अपने में

मन्त्रमुग्धा

बरसो बाद
देखी देह
उसने भी
निर्वसन

कांटे-सी
तीखी
बींधती

बीच में था जल
ठहरा

पिरोई जा रही थी
जिसमे
आवा-जाही

जीवन
मृत्यु
की 

मुझे चाहने वाला ईश्वर होगा

मुझे  चाहने वाला
ईश्वर होगा
मुझ पर बिखरे तारो को
अपने होटो से चुनता

रखता सीने पर
अपने

वह रात को पसरा होगा
रात की तरह

मेरी देह उसे
धारेगी

सपने में तारो की गुहार होगी
हमे ईश्वर से बचाओ

तब मै उन्हें अपने बालो में
छिपा लूंगा

तब तुम आओगी
मेरे सर को
अपने सीने से लगा
गुम
हो
जाने


शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

तुम्हारा तकिया मैं चुरा न लूँ

बादल जब आकाश से चले जायेंगे
तब तुम
किसी को
याद करोगे

किस तरह उसे तुम सांत्वना दे पाओ

हम अब तभी
मिलेंगे अपनी
मच्छर दानियो से  बाहर
एक दूजे को देनी होगी जब
एक दूसरे के आसपास के
किसी मरण की सूचना

ये ख्याल रखते कि
मेरा तकिया तुम
तुम्हारा तकिया मैं
चुरा न लूँ

ये भी एहतियात बरतना होगा कि
कन्धो पर शव हो
बंदूक
कुछ
 देर को

सही

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

रात किसी के तकिये पर था उसे जागना

हथेली पर किसी की
रेखाओं पर
पीपल का पत्ता

जिस पर एक बूँद
ठिठकी
चाँद उसी में
उगना था

रात किसी के तकिये पर
था उसे जागना

रात ही किसी की देह पर
चहल कदमी
थी होनी

किन्ही हथेलियों पर
रखी जानी थी
अज्ञात अदृश्य
हथेलियाँ

जिन्हें फिर
अपने अपने चेहरों
पर रख लेनी थी

तलवार की धार पर सपनो  को
था आना 

सोमवार, 22 जुलाई 2013

बिस्तर पर किसी के डूब मरने की छपाक

आईने को देखता
देखता हूँ
उस से लिपट गया

मेरा मौन
झील सा नही
चट्टान सा
हो

जिसमे मैं
जीवाश्म सा
पाया
जाऊँ

अभी तुम्हारे
द्वार पर मेरी छाया
ताजा टूटे
पत्ते सी

और बिस्तर पर किसी के डूब मरने की छपाक


गुरुवार, 18 जुलाई 2013

उसकी आवाज कोई उतरी हुई केंचुली हो

अभी जब चाँद  को काला बिल्ला आधा नोच गया
उसी दरम्यान किसी ने सूनी गली में अपने घर का दरवाजा खोला और अंधी आँखों से देखते कहा
किससे  मिलना है
कौन हो
कहाँ से आए हो
क्यों आए हो
किसने भेजा

उसी वक्त किसी दूसरी गली की बंद खिड़की से किसी ने
किसी का चेहरा
फेंका

उसी वक्त किसी की छाती पर
टिका चेहरा
गीली राख
में तब्दील हुआ

सैकड़ो टूटे तारो का हुजूम उस छाती में से गुजर गया किसी ने रोका नही

किसी के बालो में ढका चेहरा
तब देख रहा था
अन्धेरा कितना चमकीला और सुकून देता है

बरसो पुरानी दीवार के बिखरते चेहरे पर तब दो साए अपने हाथ यूं रखते है जैसे वे पक्षी हो
और इस दीवार को अपनी उड़ान में
ले उड़ेंगे

सीढ़ियों पर उन सायो का राग था

तब फिर किसी ने यूं पूछा जैसे उसकी आवाज कोई  उतरी हुई केंचुली हो

किससे  मिलना है
क्यो…
कौन
तुम

चाँद अपना नुचा हुआ चेहरा लिए मेरी आँखों में झाँक रहा
या
मै
उसकी 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

दिल का सूर्य डूब रहा

रात अपना सर उठा रही है और दिल का सूर्य डूब रहा
ठंडे अंगारे ठिठुरते कनपटियो में धंस रहे

कोइ पदचाप नही


विलाप
में
कोई
घुट
रहा

मौसम
की
उमस
हमारी
देह
के
स्पंदन
को
खा
रही

कल जो सूर्य  उगेगा
लुटा
पिटा,
अंधा,
वृद्ध

वह समस्त हरीतिमा पर नीली आँखों का पथराया स्वप्न  होगा

रविवार, 14 जुलाई 2013

शव का एकांत हूँ

मृत फोन पर सूखा बादल बरसता और बरसो पहले की सिसकी हरी हो जाती
जामुनी इन्तजार में नीले का स्फटिक बदन हवा में कसमसाता

तब एक मोर किसी सूने घर की छत पर अपने सारे पंख त्याग देता ऒर अपने पैरों को चबाता

अन्धेरे कमरे में
किसी की  कोहनी पर
बेसुध लेटा  मैं
सपने में
उसके
कान में
सपने
का
भेद
फूंकता

अभी कोई तारा नही टूट रहा
अभी
आकाश
टूट
बिखर रहा

अभी आईने में
कोई छाया
मेरा आलिंगन करती
सिसक रही

अभी गुमनामी की रेत में
मेरी बदहवासी को
नमी का छल
चबा रहा

कहाँ हो तुम
यह कहने में कहाँ हूँ मैं यह देखता शव का एकांत हूँ

शनिवार, 13 जुलाई 2013

चाक पर



हुआ 
लगाव
एक 
कुम्हारन से 
माँ 

बनाती नही 
मिट्टी से 
बरतन 

लेपती 
मुझ पर 

घुमाती 
चाक पर 

बना कैसा 
मैं 
तू बता 

किसी काम का भी रहा 

आज तो 
उसने 
चढा लिया 
खुद को 
चाक पर 

लेप लिया 
मुझे 


रविवार, 7 जुलाई 2013

मेरे मित्र बीयर पीते झाग मेरे बालो पर डालते मेरे कानो को एश ट्रे बना रहे है

मेरी हंसी एक जर्जर दरवाजे की दरार से आती विलाप की घुटी घुटी यात्रा है

मुझे अभी रात छत पर उमस में किसी ने कहा कि तुम बहुत ज्यादा हो जाते हो अब सारी उम्र यूं ही माँ की छाती लगे रहोगे क्या. 

मेमने के मुह से दूध भरा स्तन जैसे कोई जबरन छुड़ाए .

मेरी पसलियों को तोड़ती तुमने कहा अब तुम्हे खुद को ज्यादा खर्च नही करना चाहिए 
मैने देखा मेरे कपड़े या तो बहुत  ज्यादा ढीले किसी अन्य के है या मेरी खाट किसी की चिता है 

मेरी ढोलकी फट चुकी है जिसमे बैठ मुझे ननिहाल जाना था 
मुझे पीटने वाले पिता अभी मेरे उजबक बने रह जाने पर सीली लकडियो में सिसक रहे हैं 

मेरे मित्र बीयर पीते झाग मेरे बालो पर डालते मेरे कानो को एश ट्रे बना रहे है 

मेरे लिखे को मेरी अनपढ़ माँ मेरी सबसे बड़ी पूंजी समझ सड़क पर से बुहारती कुचल  जाती है 

मेरी कटी जीभ में से रक्त की आकाश गंगा फूटती है 

मैं  अपना लिंग परिवर्तन करते  देखता हूँ ईश्वर अपनी जगह से नदारद है .

मेरे घर में मेरी विगत  हंसी और बातो के सूखे कुए हैं जिनमे मेरी गीली परछाई चीखती है 


गुरुवार, 4 जुलाई 2013

बंद कमरे में पड़े हारमोनियम को कबूतरों की चोंच गूंगा कर देती है

हम देह से परे के असीम में रहते हैं  अदृश्य ...पारदर्शी ....वहां भी दुःख की भिनभिनाहट आ ही जाती है .

मेरे कंठ में आंसुओं का बर्फीला गोला तपता है और मेरी आँखों में रेतीले टीले उफनते .

कहीं कोई है जो खाता है मेरे कानो में पहुँचने वाले शब्दों को.
सूनी सडक पर एक शराबी मेरे गले लग फफक पड़ता है
अँधेरे में हरी बेंच के नीचे एक काला पिल्ला लेटा है  जाने कब से जिसे उसकी काली माँ बार बार सूंघ कर तारो की ओर देखती है .
बंद कमरे में  पड़े हारमोनियम को कबूतरों की चोंच गूंगा कर देती है

न तुम मरोगे न वह
क्योंकि
न तुम
ये
हो

वो

हम अपनी अमरता की बात करते देखेंगे हम में से जाने कौन सिसकने लगेगा

आज शाम मेरी मृत्यु में मेरे मृत पिता ने देखा कि वे अधमरे है और मैं मर गया हूँ
आज शाम मेरे रक्त में पड़ी गाँठ कुछ और कस गयी और मेरा दाहिना हाथ सुन्न हो मुझे अजनबी काले मृत पिल्ले सा पथरीली आँखों से देख रहा था .
आज अभी अंधेरी तपती रात में उस सूनी सडक पर सूनी बेंच के नीचे मैं अपनी जीभ काट रहा हूँ
कान ......भी
पुतलियाँ भी मैंने बाहर निकाल दी है
हाथ पैरों के नाखून भी मैंने उतार फेंके है

मेरी देह पर चीलों .....कव्वो ....गिद्धों की छाया का घटाटोप है

किसी की नीद में मैं  टूटी सीढ़ी
अंधी बावड़ी
फूटी हांडी
बिसूरता चूल्हा

आज शाम मेरे पिता और माँ ने कहा कि चलो अनिरुद्ध को भी यहाँ ले आते है
अभी आधी रात को मेरी देह श्मशान में या तुम्हारे कमरे में उड़ने को आतुर है

जो मुझ से नाराज है
उनके तपते ललाट पर मेरे जाने की ठंडी छाया का स्पर्श है

विदा




मंगलवार, 2 जुलाई 2013

दोपहर के वीराने में कोइ आएगा और खुद को चुरा ले जाएगा.

क्या उसे पता है कि उसे क्या पता है?
क्या उसे पता है वह किसका साया है? 
क्या उसे पता है रास्तों में रास्ते खोते है? 
कि प्यास और आस अंतिम कलप है

दोपहर के वीराने में कोइ आएगा और खुद को चुरा ले जाएगा. 

मैंने जब उससे पूछा  तो उसने कहा 'हाँ मुझे पता है!' ये सुनते ही मैने देखा मै कहीं नही था. 
अब हम वहां थे जहां हम कहीं न थे. 

उसने मेरे भीतर अपनी विस्मृत हंसी की रेत पसार दी.
अचानक टीले ने जैसे मेरा भक्षण कर लिया हो मै उसके बिसारने में यूं धंसा.
मेरे होने का कोई  निशान अब वहा न था. 
केवल टीला था.

 जिस पर कभी बैठ कर कोइ विक्रमादित्य बन गया था.
आज मेरा दम घुटता जा रहा था.
कोइ कहीं न था.

सोमवार, 1 जुलाई 2013

मृत चीजे ही दूसरो को मारती है.

जिस टेबल पर मैं झुका था उस टेबल पर मै लेटा था.

हमारे बीच आत्मा किसी चाकू सी .

मृत चीजे ही दूसरो को मारती है.

फिर मैं उठूंगा तो मेरी छाया कतरनों में मेरा गला घोंटने लगेगी.
जिस कागज को घूर रहा हूँ वह मुझे अपना अंधापन देने को आतुर है.

तुम्हारी आवाज अभी सुनाई दी जब बगल के तारे ने बगल के तारे को टूट मुंह के बल गिरते देखा.

स्मृति एक कपाल क्रिया है जिसे विस्मृति प्रतिपल किया करती है.


रविवार, 30 जून 2013

मेरे ये शब्द नही चिता पर रखी जानी वाली लकडियाँ है

उसकी आँखे हरे कंचो सी चमकी जब उसने मुझे अपनी बुझती डूबती साँसों की लहरों में अपने सीने से लगाया कि मैं उससे दूर रहा जीवन भर तब मैंने देखा उसने अंतिम यात्रा की तैयारी कर ली है

मैने तब से देखा मेरे ये शब्द नही चिता पर रखी जानी वाली लकडियाँ है

जिसकी ठंडी राख में से मैं दांत ढूंढता उसके पैरमें लगी लोहे की रोड को पाऊंगा और तब से मेरे दोनों घुटने टूट जाएँगे और मैं मध्य रात्री में टूटते तारे की राख अपनी आत्मा पर बरसती पाऊंगा

अभी चूल्हा ठंडा है रसोई में हम मां बेटा उसमें  फूंक मारेंगे तो कटोरदान में तीन दिन पुरानी रोटी फूल जाएगी
अभी उसके गहनों में देवता अपना श्रृंगार करेंगे
अभी उसकी चप्पलो में मेरी बेटी की नीद का पैर है
अभी बीस साल पहले मरा बेटा और चालीस साल पहले लापता उसका भाई उसे थाली परोसने का कहेंगे
अभी
अभी
अभी
अभी
अभी
.......थाली पर बैठे मेरे पिता थाली पर लुढक जाएंगे
अभी
अभी
अभी
अभी
अभी
......पत्नी से बाते करता मैं अँधेरे आंगन में छाती के बल जा गिरूंगा
अभी
अभी
अभी
अभी
अभी
.......नही .....अब कुछ नही 

शनिवार, 29 जून 2013

में उनके सपनों की इबारत मरी चींटियों से लिखता हूँ

आकाश नीला था शायद कि मेरी चादर जिस पर मै कोई शव था नीद में .
खाट पर पिता के पैर बाहर ही निकले रहते जैसे ज़रा ज़रा सपने जिन्हें माँ अपने झीने ओढने से ढक देती .

एक दिन पिता की खाट  की जगह माँ लेटी तो पिता ने उसके गोरे…गुलाबी चेहरे को देखते कुछ कहा जिसे ठंडे आँगन  पर पड़ी ठंडी देह ने सुना और उसी आवाज में कुछ  दिन के विलम्ब का संदेश रवाना कर दिया  था जिसे पिता ने सुना और माँ  की अर्थी को कंधा देने लगे-  जिनके पीछे मैं  था उनकी छाया में घुलता .

आँगन खुद क्या शव है
आकाश खुद क्या
अग्नि खुद क्या
जल खुद  क्या
छाया खुद क्या
प्रश्न खुद क्या
सपने खुद क्या
आवाज खुद क्या

शव
मृत्यु
जीवन
आवागमन

इन  सींखचों में कोई बदहवास घूमता सर पटकता लहूलुहान  होता ईश्वर को हंसाता है उसकी हंसी में उसकी दरकती छाया सूने विलाप में एक सबसे नन्हे  लगभग अदृश्य से जीव पर सवार हो सांस लेती है, जिसकी कोई  छाया नही .

घर में  अभी सीढीयों पर लाखो चींटियाँ मरी पड़ी है जिन्हें पिता रोज आटे  ...मिश्री ...पताशे  का भोग देते थे .अभी पिता  और माँ मुझे इस शब्दों को छूते देख सोचते होंगे  कि ये शब्द नही मरी चींटियाँ  है .

में उनके सपनों की इबारत मरी चींटियों से लिखता हूँ


गुरुवार, 27 जून 2013

वह क्या था वह कौन था यह पूछता मैंने पाया कि मैं क्या था मैं कौन था

जहां तुमने पिछले जन्म में मुझे जिस पेड़ के नीचे खड़ा कर कहा कि कहीं जाना मत अभी आता हूँ
मैंने  इस जन्म में पाया वहां तो पेड़ था ही नही और तुम कौन थे.
अब मैं किसी ऐसे पेड़ को ढूंढ रहा हूँ जिसे अपने साथ चलने का कहूं
मेरी छाया  उस पेड़ सी गायब है .

कंठ में जड़ें उलझती आँखों से प्रवाहित है .

वह क्या था वह कौन था यह पूछता मैंने पाया कि मैं  क्या था मैं  कौन था

उदास प्रथम तारा रात के कच्चे सीने पर पहला नमकीन आंसू गिराता है तो सूरज की  लौ बुझ जाती है .
समन्दर में उसका स्याह चेहरा यूं डूबता है कि समन्दर भाप बन उड़ने लगता है .
उस भाप में कोई हाथ यूं पसरता है जैसे गए प्राण लौट आयेंगे .

प्रतीक्षा वह  शब्द है जो प्रतीक्षा में हर जन्म मे…मरण  में यूं विलीन होता है कि फिर प्रतीक्षा की उम्र कैद में सर फोड़ता हे.
अंधे बिल में अजन्मे शिशु की पसली टूटती है तो ईश्वर की हिचकी में गर्दन गिरे पेड़ सी लटक जाती है 

बुधवार, 26 जून 2013

जहर में डुबो तुम्हारे वस्त्रो को मैने ईश्वर को प्रस्तुत किये . उसने समस्त अमृत मेरे पैरो पर बहा दिया .....

चेहरे पर पीली पत्तियों की छाया थी  जिसे छुओ तो तुम्हारा रक्त भी पीला पड़ जाता .
छूने वाला मृत था और जीवित को देख सिसकने में सूखी जड़ो को विचलित कर रहा था. 

एक कोव्वे को श्मशान में जाने से डर लगता था पर उसके लिए जल वहीं रखा जाता. 
मरियल  बिल्ली ज्यादा दिन भेद अपने दांतों में नही रख सकती थी .
अँधेरे में सन्दूक में अनपहने कपड़ो को पहन कोई  खुद को सर्वथा निर्वसन पाता. 
पाजेब के रोमरोम  में कोई  सिहरन खनक भी नही पाती कि  दम तोड़ जाती ....भूत वृक्ष पर वही नंगे पैर खनकते थे. कोई  काजल की डिब्बी में अपनी अंगुली यूं छुआता जैसे पुतली को छू रहा हो और पेड़ पर सांप की पुतली झपक जाती कि  सदा के लिए अनझिप पथरीली हो अपने आंसू में देवता को भोग लेती ...ओह…. यात्रा का यात्रा में गुम हो जाना कितना आवश्यक है .

जहर में डुबो तुम्हारे वस्त्रो को मैने ईश्वर को प्रस्तुत किये .
उसने समस्त अमृत मेरे पैरो पर बहा  दिया .....

अमृत यूं बहा कि अनचखा ही रहा .....
जहर में डूबा भीगा ईश्वर प्रथम कामुक भाव में आकाश के पारदर्शी लोक का अतिक्रमण करना चाहता था। 


   

प्रेषक ...........: उस घर की सीढियों पर मेरे आने से पहले मेरे चले जाने...

प्रेषक ...........: उस घर की सीढियों पर मेरे आने से पहले मेरे चले जाने...: जिस डायरी में वह हरी बेंच पर अल्मोड़ा में बैठा मिर्जा की काफी के भाप से अपना चेहरा ताप रहा था…. उसी में किसी पन्ने पर एंडर्सन के द्वारा अप...

प्रेषक ...........: उस घर की सीढियों पर मेरे आने से पहले मेरे चले जाने...

प्रेषक ...........: उस घर की सीढियों पर मेरे आने से पहले मेरे चले जाने...: जिस डायरी में वह हरी बेंच पर अल्मोड़ा में बैठा मिर्जा की काफी के भाप से अपना चेहरा ताप रहा था…. उसी में किसी पन्ने पर एंडर्सन के द्वारा अप...

मंगलवार, 25 जून 2013

उस घर की सीढियों पर मेरे आने से पहले मेरे चले जाने के निशान थे.

जिस डायरी में वह हरी बेंच पर अल्मोड़ा में बैठा मिर्जा की काफी के भाप से अपना चेहरा ताप रहा था….
उसी में किसी पन्ने पर एंडर्सन के द्वारा अपनी इन स्विंगर से यूसुफ़ योहाना को बोल्ड करना  था ...

उसी वक्त गर्मी में तपते मुझे बियर का पहला सिप लेते पत्नी से सुनना था कि  वह नही रहा--
उसी वक्त उस हरी बेंच के सूनेपन पर एक फटी तस्वीर को आ दम तोड़ना था .

उसी वक्त नोएडा के टोल ब्रिज पर किसी का गुमनाम शव उठाया  जाना था…

डायरी के अंतिम पेज पर मुझे उसके घर जाना था जहां मेरे लिए अर्थी तैयार थी . उस घर की सीढियों पर मेरे आने से पहले मेरे चले जाने के निशान थे.

डायरी के किसी पन्ने पर हमें एक खूबसूरत चेहरा देख पान खा  अपने लाल होंट देखने थे .

अभी अल्मोड़ा में पहाड़ और यहाँ रेगिस्तान में एक धोरा दरक… ढह रहा है ....पत्रों में कूकर की सीटी बज रही है और आईने में एक अंधा मोड़ बल खा रहा है ...

उसकी तस्वीर देख तब की नन्ही बच्ची बीस साल बाद पूछती है ये मेरे सपनों में क्यों आता ....
दरवाजे  पर अभी आधी रात दस्तक है ....दूर पहाड़ पर कोइ सिसकता दरवाजा खोल रहा है .

घाटी पर जैसे सांप बिछ गया है .

इतना नजदीक भी मत आना कि सिर्फ जाना ही दीखता रह जाए जिसकी राख भी न मिले .

कल रात चाँद इतना नजदीक था कि  मेरे शब्द खो गये.
मैं शब्दों को ढूँढने गया तो पीछे मेरे सफेद चादर के बिस्तर पर कोइ आ कर लेटा रहा। 
वह कौन था ?
मेरे चादर पर जितनी सलवटे थी उतनी चाँद की देह पर खरोंचे थी .
पर मेरे शब्दों को  किसने भरमाया .
जिनकी राख तक नही मिली .

एक बार पहले भी ऐसा मेरे साथ हो चुका है तब भी चाँद पृथ्वी और   मेरी मेज की ऍन छाती को छू रहा था. 
तब मैने उपन्यास लिखना शुरू किया .
मगर कुछ ही दिनों में वह अधलिखा ....ढह  गया, जिसे मैने अवांछित सन्तान या अल्पवयस्क मान विस्मृति के खड्डे में दबा दिया था. 
अरसे बाद उसकी आहे मेरी स्मृति को डराने लगी तो मैंने उस उपन्यास की अधूरी देह को ढूंढना शुरू किया .
उसकी राख भी नही मिली .

आज मेरे बिस्तर पर किसी की करवटे और चाँद की देह पर खरोंचे थी।

इतना नजदीक भी मत आना कि सिर्फ जाना ही दीखता रह जाए जिसकी राख भी न मिले .
अभी चाँद फिर आकाश में है ....जैसे उसका कुछ लुट गया हो .

रविवार, 23 जून 2013

आशुतोष दुबे की कविताएँ -नहीं, संयोग नही यह वियोग भी नही यह श्मशान-श्रृंगार है जिसमे विरह शोभा में दीप्त एक शव दूसरे की प्रतीक्षा में कातर होता है


१-उसी घर में

मेरे आगे-आगे चल रही है
एक चीख गुपचुप-सी

अभी-अभी निकल कर आया हूँ
एक आत्मीय घर से
जहाँ पूछी सभी की कुशलक्षेम
अपनी बताई
चाय पी-हँसा बतियाया
और अच्छा लगा कि यहाँ आया

मेरे निकलने से पेश्तर
शायद वहीं से निकली है
यह गुपचुप सी चीख
मेरे आगे-आगे चलती हुई
मेरा पीछा करते हुए

और अब
मुझसे पहले
मेरे घर के दरवाजो पर
दस्तक दे रही है .
-----------------------

२-खोई हुई चीजें

खोई हुई चीजें जानती हैं
कि हम उन्हें ढूंढ रहे हैं
और यह भी
कि अगर वे बहुत दिनों तक न मिलीं
तो मुमकिन है
वे हमारी याद से खो जाएं

इसलिए कुछ और ढूंढते हुए
वे अचानक हाथ में आ जाती हैं
हमारे जीवन में फिर से दाखिल होते हुए

हम उन्हें नये सिरे से देखते हैं
जिनके बगैर जीना हमने सीख लिया था

जैसे हम एक खोए हुए वक्त के हाथो
अचानक पकड़े जाते हैं

और खुद को नये सिरे से देखते हैं

जल्दी से आईने के सामने से हट जाते हैं
-----------------------------------------

३-जलाशय

तालाब में डूबते हुए
उसने सोचा
उसके साथ उसका दुःख भी डूब जाएगा

वह ग़लत था

उसके डूबते ही
तिर आया उसका दुःख सतह पर

कहा जा सकता है
कि वह जलाशय दरअसल एक दुखाशय था
जहाँ हल्के और भारी
बड़े, छोटे और मझोले दुःख तैरते रहते थे

जो देख पाते थे
वे अपने से बड़े दुखों को देख लेते थे
और लौट जाते थे

जो नही देख पाते थे
वे अपने भी दुःख उसी को सौंप जाते थे

कहने की जरूरत नही
कि वह बहुत सदाशय था
---------------------------

४-डर

पृथ्वी के दो अक्षांशो पर
अपने-अपने घरों में सोए हुए
दो व्यक्ति
एक जुड़वाँ सपना देखते हैं

यह एक डरावना सपना है

दोनों घबराकर उठ बैठते हैं
दोनों का कंठ सूखता है
दोनों पानी पीते हैं
पर शुक्र मनाते हैं
कि जो कुछ भी हुआ
सपने में हुआ

दोनों अगली सुबह अपने
काम पर जाते हैं
सपने को भूल जाते हैं

डर, पृथ्वी के इर्द-गिर्द
एक उपग्रह की तरह
मंडराता है
------------------------

५- पुल

दो दिनों के बीच है
एक थरथराता पुल
रात का

दो रातो के दरमियाँ है
एक धड़धड़ाता पुल
दिन का

हम बहते हैं रात भर
और तब कहीं आ लगते हैं
दिन के पुल पर

चलते रहते हैं दिन भर
और तब कहीं सुस्ताते हैं
रात के पुल पर

वैसे देखें तो
हम भी एक झूलता हुआ पुल ही हैं
दिन और रात जिस पर
दबे पाँव चलते हैं
-------------------------[उपरोक्त कविताएँ 'यकीन की आयतें' से ]

६-शोकसभा में एक हँसी

कण्ठ के गुलेल से
वह जो छूटा हुआ एक शब्द है
कंटीले तारो के पार जाता है

मर्मस्थल से निकली
वह जो एक यातनादीप्त चीख है
अनंत में लिखती है एक मृत्युलेख

गाढ़े अँधेरे में देहों के बीच
वह जो चुप्पी है निथरती हुई
आत्माओं में रिसती है

लगातार गूंजती हुई
वह जो शोकसभा में एक हंसी है दुर्निवार
आदिम सन्देह से भर देती है दिशाओं को

सब एक-दूसरे को देखते हैं
और एक-दूसरे से बचते हैं

और जो नहीं रहा
इस तरह रह जाता है
सबके बीच
---------------------

७- जगह

एक संकुल संसार में
जो चला गया
वह अपने पीछे छोड़कर नही गया
कोई खाली जगह

उसी की जगह खाली रही
जो अब तक नही आया

बनी हुई जगहें
ईर्ष्या से देखती हैं

किस तरह
अनुपस्थिति बुनती है एक जगह
जो प्रतीक्षा करती है
---------------------------------

८- श्मशान-श्रृंगार

क्या तुमने कभी
किसी सब्ज दरख्त पर
गिरती हुई बिजली देखी है?

नींद में होठों पर
भटक आई मुस्कान
भ्रम है
भ्रम है दस्तक
रात तीसरे पहर अचानक
मन पर

ये कौन सी आवाजे हैं
जो शामिल हो गयी हैं हमारी आवाजो में
ये कौन से प्रेत हैं
जो हमारी आवाजों में
अपने फरमान जारी कर रहे हैं

नहीं,  संयोग नही यह
वियोग भी नही
यह श्मशान-श्रृंगार है
जिसमे विरह शोभा में दीप्त
एक शव दूसरे की प्रतीक्षा में
कातर होता है

देखो
एक पेड़ जल रहा है सामने

वह देखो
उसके नीचे
बारिश से बचने के लिए खड़े हुए हम
राख हो रहे हैं
------------------------------------[उपरोक्त तीन कविताएँ 'असंभव सारांश' से..]

शनिवार, 22 जून 2013

अभी बाहर कहीं वे दो देह दूर से दूर होती तारो के मध्य तनी रस्सी है.

तुम्हारे कमरे में वह तुम्हारे सामने कुर्सी पर वैसे ही बैठा रहेगा जिस तरह तुम उसके सामने अपनी कुर्सी पर पलकें मूंदे बैठे हो.
दोनों ने नीले कपड़े पहन रखे हैं.
जो तुम्हे कहना है वह वो सुन लेगा पर कहेगा नही.
जो वह कहेगा उसे तुम सुन नही पाओगे.

एक देह उस कमरे में कुर्सी पर  बैठी होगी जिसमे से कोइ चला जाएगा.

वह तुम्हारे लिए है. जो कहोगे वही सुनेगा....पलके मूंदे रहेगा.तुम उसके कानो में कुछ शब्द फूंक दोगे. जिसे प्रस्थान कर गयी देह को सुनना था....
.....इधर किसी दूर देश में भी एक देह महसूस करती है की वह किसी के कमरे में कुर्सी पर पलके मूंदे बैठी है और उसके कानो को किसी के होंट छू रहे हैं.
दोनों की देह वहां  नही है जहां वह बैठे दीखते हैं.
दोनों ने अपनी देह को छाया हीन कर लिया है,
वह उसे याद करता है तो उसकी आत्मा का पारदर्शी जल सिहर जाता है, सकुचा जाता है.
जिसमे कामना के पेरो को चूमे जाने के अक्स डूब जाते है.
एक नीली...झीनी चादर उसके चेहरे पर डाल कोई उसी के हाथो से उसे छूता है.

ईश्वर के आंगन में किसी की देह पत्थर इस कदर पथराया सा पिघलता है कि समूचे जगत में वह आकाश सा तन जाता है जिसमे तारो पर रखे शोक के वस्त्र..विलाप भीग जाते है.

अभी अपने अँधेरे कमरे में दोनों की कुर्सियाँ नजदीक आ गयी है.
अभी बाहर कहीं वे दो देह दूर से दूर होती तारो के मध्य तनी रस्सी है.
जिन पर एक आंसू ठिठका है....जिसमें वे शब्द है .....हाँ वे ही.....हाँ .....वे ...ही ....

सोमवार, 17 जून 2013

१. सांझ है और बरसो पुराने बिना छत और दरवाजे के उजड़े घर में चूल्हा ठंडा है.जिसकी उंगलिया मेरे लिए तवे पर गर्म रोटी उतारते जल गयी.....दूर फूटी मटकी की छाया फटी पड़ी है...मेरे लिए इसे कुँए से कंधे पर लाने वाले मजबूत कंधे....ओह सब को तो मैं भगवान को सोंप आया...अब मे केंचुली सा इस खण्डहर में पड़ा हूँ.जमीन में वे नारियल के टुकड़े कोयले बन राख हो रहे जो मुझे बुरी नजर से बचाते. एक लंगड़ा मोर बिन पंखो वाला यहाँ अभी अपनी छाती फाड़ेगा....मेरे सर पर अभी एक हाथ आएगा जिसे गये जाने वालो से भी ज्यादा वक्त हो गया है.गीली लकडियाँ हमेशा गीली रहती है, आँख भले सूख जाए...सूर्यास्त होने ... होने को है अब शव नही आएगा जो बचा रह गया है वह शव से अलग नही ....ओह चिता और चूल्हे क्या रात भर ठंडे रहेंगे आज....

२. जिस तरह प्यास लगने पर माँ सूखी ...खाली मटकी में रात में लोटा डालती और मेरे मुंह लगा देती और मैं सात जन्मो का प्यासा अगले सात जन्मो की प्यास पर उस जल के सागर को बिछा देता....कल रात इसी तरह मैं राह देखता रहा...मेरी विस्मृत नीद और बेरहम सपने देख रहे थे कि कोई मेरी मटकी फोड़ रहा था....अनिद्रा में मैं विलाप के सूखे अंतहीन पसारे में सुन्न था. माँ आई थी जैसे एक मृतक दुसरे की देह उठाए उसने अपनी छाया को समेटा....मेने उसकी आँखों में देखा उसमे गीला हरा था.
उसने मेरी सारी नीद...सपनों...को उस हरे में डुबा दिया....
अभी सुबह देखा सूरज हरे समन्दर से मुँह निकाल रहा था उसकी आँखे नीद और सपनों से भारी थी.