मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

कहे के पसरे खालीपन में मेरा सुनना ठिठुर रहा था

रात कि परछाई थी जो कल आने का कहती भुरभुरा रही थी

कहे के पसरे खालीपन में मेरा सुनना ठिठुर रहा था

धरती कोई कमरा थी किसी के ठंडे तकिये पर रखी जिसमे एक कमरे में चाय पीते किसी को किसी कि याद के भूत से पीछा छुड़ाने कि शहदीली कोशिश में जीने मरने के पुल से छलांग लगानी थी

अनिद्रा का
स्वप्नरहित
तालाब
तब
जीभ
काट
रोयेगा

रोने के भरेपन में मेरी देह हल्की हो तैरेगी 

रविवार, 1 दिसंबर 2013

स्मृति की उड़ान स्मृति सी


आकाश था अपने नीले के पड़ौस में व्यापे सफेद में 
जिसमे स्मृति की उड़ान स्मृति सी 

कोई पदचाप थी बाद में सीढियों पर जो नीद में सपनों की चट्टानों पर चिड़िया की चीख सी आकाश की छाती को बींधती 

इस दृश्य में मैंने पुकारा एक नाम 

एक नाम 

ठिठुरता कोई आया और उस पुकार को अपने सीने से लगाता 
जैसे बुहारता चला गया 

एक नाम 
आकाश है