रविवार, 27 अप्रैल 2014

मुस्कान का हरा स्मरण

मुस्कान का हरा स्मरण

सुख का साया
साए का सुख
नहीं

पलकों पर
आकाश
का
काश

स्थगित
सम्बोधन में
महकता
गारा
राग का

होने का न होना
निर्बंध 

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

धोरों पर मांड राग में ऊंटनी की चाल सी कोई आवाज

मूमल धोरों पर एक कामना हिरणी सी
जिसे अल्लाह जिलाई बाई ने बरसों बाद अपने कंठ में बसाया.

चांदनी रात में धोरों पर बेसुध कोई छाया
जिस पर बेसुध छाया देखती है 
लाल ओढने में पलकें मुंदी है और होंट हल्के से खुले हैं 
जैसे कोई जाप करते करते सपने की बावड़ी में उतर गया हो .
....अभी अभी .

देखने वाला अपनी छाया में किसी की छाया का घुलना देखता किसी की साँसों को पीता है .

धोरों पर मांड राग में ऊंटनी की चाल सी कोई आवाज उसे कहती है
 ....हाले तो ले चालूँ मरवण देस.

मूमल धोरों पर ......
उसकी दोनों पलको के मध्य कोई हल्की गुलाबी पंखुड़ी रख गया है  ...

जो सपने के जल पर थिर है .

ठोडी पर जो आधा चाँद था 
वह फिसल कर सीने पर पिघलने लगा .

और उधर अल्लाह जिलाई बाई का आवाहन 
.....हाले तो ले चालूँ रिझालू रे देस
गा कर कोई मूमल हुआ जा रहा .....

दूर खेजड़ी पर कमेड़ी की कूक से 
रात की  हूक मूमल के ओढने को फड़फड़ा रही .


एक छाया उस ओढने में झांकती सी बुदबुदाती है .......मूमल .....चलें .....
बालू रेत पर नागिन पूछती है कहाँ जायेगी मूमल.

छाया घुल जाती है कंठ में 

सूखे पोखर जल की छल छल स्मृति में 
हरिया जाते 
जिसमे मूमल अपना चेहरा देखती 
जिसमें कोई अदृश्य हाथ उसके चेहरे पर बिखरे बालों को हटाता 
कान के नीचे कुछ लिख देता है 

मूमल की हथेली पर वह लिखा काजल की टिकी सा 





बुधवार, 16 अप्रैल 2014

nn 

भुला चुके बहुत से चूल्हों का सामूहिक दहन है ...गोपालन का दिलरुबा वादन सुनते हुए

उसे सुनते हुए नहीं याद करते हुए सुना जा सकता है....
......शायद......

वह जब हो रहा होता है दिन के ढलने की थकान और रात के फन उठाने के बीच 
तब तुम नीली स्याही को अँधेरे में लाल स्याही में तब्दील होते देखते हो . और अँधेरे में शब्द अज्ञात कीड़ों से तुम्हारी देह पर फिसलने रेंगने लगते है 

वह अभी ढलती भारी शाम को मृतकों की राख पर हवा सा ठहरा है .
वह अभी बरसों के ठहरे जल पर काला पत्ता है जो हरी सिसकीयों में पक्षियों के पंखो पर पसर रहा है .
बावड़ी में अभी एक कबूतर एक-एक सीढ़ी उतर रहा है.
उसकी छाया मगर उससे पहले जल की स्मृति में जा डूबी है.

एक गूँज में बावड़ी का अँधेरा अपनी गाँठ में और कसता जा रहा है .
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जिस धोरे पर बैठी एक छाया स्मृति में कोई नाम सिमर रही थी
उसे धोरा धीरे - धीरे अपने में उतारता उसका भख ले रहा था.
जिसे दूर खेजड़ी की जली छाया में पड़ी केंचुली देख रही थी.

चिड़िया जितनी भी ....केंचुली जितनी भी निशानी बाद में धोरे पर नही मिलेगी कि कोई यहाँ स्मरण में लीन था ---धोरा भी किसी का स्मरण है 
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शोक में डूबे लोगों को बर्फ पर लिटा कर गोपालन तुम्हारा दिलरुबा वादन सुनना चाहिए .
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कांच पर हीरे के टुकड़े की खरोंच जिस तरह चलती है ......उससे भी तीखा भेदन है तुम्हारे वादन में .
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तीखा 
मगर बहुत ठंडा ---ठहरा .
जैसे ये कोई विराट जल राशि का ठहरा प्रवाह है जिस पर हमारी स्मृतियाँ ...शवों सी आती जा रही है जाती जा रही है .
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हवा में एक मरोड़ है .
मरोड़ में कंठ की दीवारें भुरभुराती ढहती है .
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पहली बार जब इसे सुना तो लगा अगले ही पल जिस कमरे में पड़ा हूँ वह मुझसे पहले बाहर भागेगा ---अपने कानो पर हथेलियाँ रखे . सामने दूसरे वाले कमरे में  , जहां दूसरा कमरा अपना दरवाजा बंद कर लेगा .
वह कमरे के बाहर के भीतर में शेष रह गया अपने भीतर के बाहर छिटका अपने बाहर से निर्वासित.

अपने भीतर में शव सा ठंडा होता ...
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विरह की छाया हर कुछ का भक्षण कर लेगी .
हूक .....सिसकी 
ठंडा होता दीपक.....

बेआवाज सपनों पर गिरती रेत.

हर जगह अभी खाली है .
जगह अपने आप में अभी जगह नहीं 

चीज़े अपने आप में मर भी नहीं पा रही .

आलिंगन में भिंचे -भींचते हमारे दांत भिंच जाते हैं और कानों के पर्दे सीले होते एक रूदन की काली छाया में खुद को तब्दील होते देखते हैं .
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तुम्हारा वादन अपने यंत्र का ईश्वर से सीधा अंत्येष्टि कर्म का उपक्रम है .
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तुम्हारा वादन प्रेम का गूंगा स्मरण ....फटी....छाया सा .

यहाँ सिर्फ छायाएं एक दूजे में गुँथी है .

कहीं कोई है 
कहीं कोई नहीं है 
कहीं .........
चले गए की खाट है 

एक भीग कर सूख चुका पत्र है .
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किसी चेहरे पर बरसों पहले जा चुके की खुरदुरी हथेली का स्पर्श है 
जिसमें किसी शाम तुम्हारी आधी खाई बाजरी की रोटी की गंध है .

कहीं कोई चूल्हा है 
जिसका अंतिम कर्म नही हो  पाया .
---तुम्हारे वादन में ऐसे लापता, ऐसे अदेखे, ऐसे भुला चुके बहुत से चूल्हों का सामूहिक दहन है .

गोपालन तुम्हें होना था .
दिलरुबा वाद्य के लिए 
.....मेरे लिए ....

मुझ  जीते जी की  सिर्फ तुम ही अंत्येष्टि कर सकते हो ...थे .

तुम्हारी 
...............................................................................मैं.......




हरी पत्ती है जिसमे हमारा चेहरा पीला पड़ता

लिखी जाती
विस्मरण में
गुम
पंक्तियाँ

जो लिखा जाना था
नही लिख पाए
कभी

अनुपस्थित का
सूना
हाहाकार

कोई आईना नही
हरी
पत्ती है
जिसमे हमारा चेहरा
पीला पड़ता

निरंतर हूक में सनी
पक्षी की
आवाज

जिसकी छाया नही

रविवार, 13 अप्रैल 2014

सूने आँगन पर किसी के सपनों की गर्द पर
एक हूक

आकाश में किसी की पदचाप की छाया से
बच्चे के एलबम में रखा पत्र
सिसकता सिकुड़ जाता

दो हथेलियों के बीच
बावड़ी में जमी काई में
हरा होता चाँद

चोर क़दमों से
आने वाला
चोर न हो याचक
या
विधाता भी हो सकता

कमरे में रखी कुर्सी ने
अपनी छाया में
किसी के स्मरण सी

पीठ पर किसी के भीगे बालों की नमी
पलकों पर

एक पीले पत्ते ने किसी के कंधे पर
खुद को संयुक्त पाया