रविवार, 24 अगस्त 2014

डायरी एक ताबूत

डायरी एक ताबूत




1-
‘डायरी में मैं अपने डर का सामना करता हूँ और अपने शून्य की पैमाइश और अपनी कमजोरियों की जांच पड़ताल. अपने अँधेरे का जायजा भी लेता हूँ. अपने दिन का सामना करने के लिए अपने आपको आमादा करता हूँ. लेकिन साथ ही इस खतरे और ख्वाहिश का साया भी बना रहता है कि मेरे बाद कोई इसे पढ़े [पढ़ेगा], इसमें कई अनुमान लगाए [लगाएगा], इसे प्रकाशित करे[करेगा]. इस साए के कारण मैं इसमें भी सब कुछ नहीं लिखता, लिख सकता. पूरी ईमानदारी और उरयानी यहाँ भी संभव नहीं.’
2-
‘डायरी में भी सब कुछ दर्ज नही किया जाता. उस डायरी में भी नहीं जो छपवाई नहीं जानी है. मतलब यह कि ख़ुफ़िया डायरी पर भी यह खौफ हावी रहता है कि कोई मुझे पढ़ लेगा.’
--कृष्ण बलदेव वैद
‘जब मेरा बाकी लिखना छूट जाता है, अरसे से छूटी हुई डायरी शुरू हो जाती है. क्या यह एक तरह की क्षति-पूर्ती है, घर के अभाव को बेघर अनुभवों से भरने की लालसा ? ....जो मेरा अतीत है, वह इन डायरियों का वर्तमान है, इसलिए पुरानी पोथियों से उतार कर इन्हें दुबारा से टीपते हुए मेरा कालबोध बार-बार हिचकोले खाने लगता है. यह नहीं लगता, हम अतीत की पुनरावृति कागज पर कर रहे हैं, बल्कि यह लगता है कि हम वर्तमान में अपने को दुबारा से व्यतीत कर रहे हैं, कि वर्तमान के इस क्षण में- जब मैं डायरी टीप रहा हूँ- मैं एक दूसरा वर्तमान जी रहा हूँ. कभी-कभी तो मुझे गहरा अचरज होता था कि क्या यह सचमुच मेरे साथ घटा था, जिसे मैं टीप रहा हूँ ?’
--निर्मल वर्मा

‘निराशा और घुमड़ती हुई वेदना और छटपटाहट के क्षणों में जब कि मैं इस कमरे से उस कमरे मंडराता रहता हूँ या बिस्तर पर खामोश पड़ा रहता हूँ या सड़कों पर अपने को मुश्किल से थामे चल रहा होता हूँ – इस बात की एक प्रतीक्षा-सी रहती है कि जब इस कापी को निकाल कर कुछ लिखने बैठूंगा तो सब कुछ सहार ले जाऊंगा. पर इस ‘कन्फेस’ करने के क्षण को अपने नजदीक खींचने में न जाने कैसे घबराहट और भयंकर उदासीनता घेर लेती है और काँटों की तमाम नोके मेरे कलेजे के नर्म मांस में चुभते-चुभते कुंद हो जाती है और भारी पानी की एक नमकीन में मैं डूबने लगता हूँ. चुपचाप पड़ा रहने दो मुझे-बिस्तर पर लेटी हुई मेरी काया के भीतर तिल-तिल नष्ट होते जाने का ख्याल एक उस रुंधे हुए आवेग की तरह मुझे हिलाने लगता है जिसके भाग में आंसू के कुछ कतरे भी नहीं.......एक सूखी जलन, बस-एक हरी चीज के जलने की रुंधी हुई सिस्स सिस्स और हवा जो धुंए की लटदार पतली पेंचों में फाहे से उठते हैं और उठने के साथ ही ‘फेड’ हो जाती है ....’
--मलयज

डायरी- एक लेखक की डायरी तो ख़ास तौर पर –मुझे लगता है- तभी उसके खुद के अलावा दूसरों के भी काम की चीज हो सकती है जब उसमे दर्ज हुई बातें कुछ ऐसी हों, जिनमे बहुत अलग अलग स्वभावों, रुचियों और दृष्टियों वाले सहृदय पाठक भी साझा कर सकें. लेखक का प्राक्रतिक और मानवीय पास-पडौस, उसके राग-विराग, आकषर्ण-विकर्षण, उसकी रीझ-बूझ या नैतिक कल्पना-संवेदना को उत्तेजित करने वाली घटनाएं, प्रवृत्तियां यहाँ तक कि अध्ययन प्रसंग तक, उसके सर्वथा निजी ऊहापोह भी क्या किन्हीं ओरों के लिए रुचिकर और सार्थक नहीं हो सकते ? हम सभी मानवजीव निरपवाद रूप से रात-दिन अपने आप से और अपने आसपास की दुनिया से झगड़ते रहते हैं. जिस झगड़ने में कभी कभी दूर या निकट के हमारे पुरखों की प्रतिध्वनियाँ भी अपने आप शामिल हो जाती है. तो यह जो अजस्र आत्मालाप या वाद-विवाद-संवाद हमारे चाहे-अनचाहे ही हमारे भीतर चलता रहता है- डायरी क्या उसी को पकड़ने और दर्ज कर लेने की अन्तर्विवशता के कारण ही नहीं लिखी जाती ?’
--रमेशचन्द्र शाह

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कोई खिड़की है .

एक तरफ से देखें तो लगता है कोई उस तरफ से पुकार रहा है, जैसे वह खिड़की के रास्ते भीतर आना चाहता है. कोई उस पुकार पर उस तरफ के अँधेरे में झांके और अपना हाथ बढ़ा दे.
उस बढ़े हाथ को संभव है कोई थाम ले.

या ये भी संभव है कि उस बढ़े हाथ को ही कोई अपनी तरफ खींच ले.

वह उस तरफ बैठा ही शायद इसलिए है कि कोई कभी उसकी पुकार पर इस तरफ झांकेगा, हाथ बढ़ाएगा.और तब वह उसे इस तरफ खींच लेगा.

इससे पृथक यह भी हो सकता है कि कोई किसी रात इस खिड़की से उस तरफ कूद जाए. उसके जाने की कोई आवाज न हो.वह अँधेरे में घुल जाए.
कभी फिर किसी समय जब इस खिड़की को देखे तो उसे ये किसी फन्दे सी अपने गले में कसती नजर आए.

बरसों तक न किसी को यह दिखाई देती है न इसकी जरूरत महसूस होती है. हमे लगता है किसी ने यह खिड़की यूँ ही खुली छोड़ दी है. कई बार हम इसे बंद कर देते हैं. कई बार नजरअंदाज कर देते हैं. कई बार सोचते हैं खिड़की का ख्याल कितना व्यर्थ है.

अभी रात गहरा रही है और मैं अपने अँधेरे कमरे में कुर्सी पर बैठा देख रहा हूँ कि बाहर सब तरफ अँधेरा है पर खिड़की के रास्ते कोई मुझे यहाँ बैठे देख रहा है.

कोई देखना चाह रहा है या मैं चाह रहा हूँ कि कोई मुझे देखे. कोई क्यों देखना चाह रहा है या मैं क्यों चाह रहा हूँ कि कोई मुझे देखे ? अदेखे-अनचाहे क्यों नहीं रह लिया जा रहा ?

डायरी ....क्या ऐसी ही कोई खिड़की है ?

कोई झांकता है तो इसमें क्यों झांकता है ? पुकारता है तो क्यों पुकारता है ? सुनना चाहता है तो क्यों सुनना चाहता है ?

'बहुत चुपचाप, अपने अँधेरे में कोई कुछ इसमें बडबडाता है.कोई इस बडबडाहट पर कान लगा फटी आँखों से देखता रह जाता है, पर क्यों वह कान लगाता है?

कहते हैं हर कोई कुछ कहना चाहता है पर बहुत कुछ कह नहीं पाता. सब तरह से कहने के बाद भी कुछ रोक लिया जाता है, कुछ रुक सा जाता है.
कोई कुछ कहना चाहता है पर चाहता है कि उसे कोई सुने नहीं. सुने तो इस तरह कि जैसे कभी कुछ सुना ही नहीं .

ऐसा अँधेरा कहन जो न कहते बने न सुनते, उसके लिए मध्य रात के पंजों की गर्म व् धीमी कसावट तत्पर रहती है. जो हाथ किसी के गले पर कस रहा है वह हाथ किसका है – यह चिंता नहीं रहती. वह सिर्फ हाथ होता है. इसका या उसका ....किसी का नहीं.