शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

जीवन और मृत्‍यु के बीच जो संवाद-सा कुछ है: शिरीष कुमार मौर्य

मृत्‍युबोध एक जटिल विषय है. मृत्‍यु के बारे में सोचते हुए या उसे अपने आसपास घटित होते देखते हुए कोई ज़रूरी नहीं है कि आप उससे भयभीत भी हों …  इसलिए सबसे पहले तो यही कहना चाहूँगा कि मृत्‍युबोध अलग वस्‍तु है और मृत्‍युभय अलग…. इन्‍हें मिला देना बहुत कुछ गड़बड़ कर देना है ..ख़ासकर कविता के इलाक़े में. मैंने मृत्‍युबोध की कई कविताएं पढ़ीं… हमारे बुज़ुर्गों की…. अग्रजों की और हमउम्रों की भी. जीवन में कभी-कभी कुछ बातें देर से होती हैं, जैसे अभी महीना भर पहले ही अनिरुद्ध उमट के 2005 में छपे कविता संग्रह ‘कह गया जो आता हूँ अभी’ से मेरा पहला सामना हुआ. नवीन सागर को हम सभी पाठक जानते हैं और उनके कविकर्म को भी…इस संग्रह की शुरूआत के ही एक पन्‍ने पर उनकी तीन पंक्तियाँ  दर्ज़ हैं:
यहाँ मेरा कंधा होना था
जहाँ मेरा हाथ खाली
झूल गया है हवा में 
मैंने महसूस किया कि यह सिर्फ़ प्रिय कवि का उद्धरण-स्‍मरण ही नहीं है… संग्रह की कविताओं की थीम लाइन या जैसा प्राध्‍यापकीय या अकादमिक भाषा में कहते हैं  ‘विषय-प्रवर्तन’ जैसा कुछ है. नवीन सागर पर एक बहुत अच्छी कविता भी है इस संग्रह में.  कई कविताएं और हैं, जिनमें मृत्‍यु का उल्‍लेख है. मृत्‍यु के होने…कई तरह से होने …. न होने…कई तरह से न होने के कई दृश्‍य हैं यहाँ. उदासी, ख़ामोशी, निर्जनता, ठंडापन और आत्‍मवक्‍तव्‍यता बहुत है इस संग्रह में लेकिन इस सबके पीछे एक निरन्‍तर हलचल भी है… उत्‍तेजना है…सक्रियता है…बेचैनी भी भरपूर है. धीरे-धीरे मैंने समझा कि लेकिन के पहले वाली चीज़ें दरअसल शिल्‍प में हैं और लेकिन के बाद वाली कथ्‍य में…और फिर दोनों लगातार मिलते-बिछुड़ते भी रहते हैं. पिछले बीस साल में जिस तरह मैंने कविता को पढ़ा है, उसके सामने एक विकट चुनौती हैं इस संग्रह की कई कविताएं. अपनी स्‍मृतियों की खोह मैंने पाया कि अनिरुद्ध उमट की कुछ कविताएं मैंने कई साल पहले भी पढ़ी थीं और शायद अपनी पुरानी उम्र और तब की कठोर धारणाओं में मैं उन्‍हें खारिज भी कर चुका था. यहाँ यह मतलब हरगिज़ न निकाला जाए कि उम्र के साथ मेरी धारणाएं बदली हैं …  बल्कि वे तो और भी मज़बूत हुई हैं… मगर कुछ हुआ है जीवन-अनुभवों में…रिश्‍तों में …साहित्‍य के संसार से मेरी निकटता बढ़ी है…पहले सिर्फ़ पाठक था फिर बतौर ‘कुछ-कुछ कवि’ मैं उसमें हिस्‍सेदार भी हुआ हूँ… मेरी समझ और अनुभूति का दायरा बढ़ा है. मैंने सीखा है कि कुछ चीज़ें सिर्फ़ आपके दायरे में न होने के कारण खारिज नहीं की जा सकतीं…. गुंजाइश आपके दायरे और उन चीज़ों, दोनों में बराबर बनी रहती है और कभी एकदम खुलकर सामने भी आ जाती है….आपको चौंकाती भी है… और उलझन में भी डाल देती है…. अनिरुद्ध उमट की कविता भी मेरे लिए इसी तरह की कविता है …. मैं बौखला जाता हूँ कि क्‍या करूं इन कविताओं का ….रख देता हूँ किताब….मगर पलटकर फिर खोलता हूँ… पढ़ता हूँ और बेचैन होने लगता हूँ. कुल मिलाकर वे परेशान करने वाले कवि हैं…. परेशानी पैदा करने को अपने ठेठ मानस और वैचारिक विधान में कविता का काम और उपलब्धि मानता हूँ मैं… और जैसी कि मेरी आदत है मैं किसी एक कवि को पढ़ते और उस पर लिखते हुए सिर्फ़ उसी में बंधकर नहीं रहना चाहता….इस बहाने कविता और विचार के सम्‍बन्‍धों की पड़ताल भी अनिवार्य लगती है मुझे.
अशोक वाजपेयी ने इस संग्रह का ब्‍लर्ब लिखा है, वहाँ से कुछ पंक्तियाँ  -
अनिरुद्ध उमट की कविता बिना अपना हाहाकार मचाए या कि दूसरों के लिए कनफोड़ चीख़पुकार किए भाषा और अभिव्‍यक्ति की शान्‍त लेकिन स्‍पंदित गति से हमारे जाने हुए के भूगोल को स्‍पष्‍ट और विस्‍तृत करती है. उसमें निराधार आशावाद नहीं है… 
अशोकजी की अपनी पहेलियाँ  रही हैं….ये हम सब जानते हैं. वे मार्क्‍सवादियों से भरपूर आक्रान्‍त रहे हैं और जहाँ मौका मिला, वहाँ उन पर कुछ कटुतिक्‍त टीपने का लाभ उन्‍होंने हमेशा उठाया है. यह भी जान लीजिए कि ये उनके विचारक या आलोचक होने की नहीं, कवि होने की मुश्किल रही है. अपना हाहाकार, दूसरों के लिए कनफोड़ चीख़पुकार और निराधार आशावाद…. वामपंथी कवियों की कविता के लिए इस्‍तेमाल किए गए पद हैं….और दुख इस बात का कि उमट की कविता पर लिखते हुए वे आसानी से इस्‍तेमाल हो भी गए हैं….किस भूगोल की बात हो रही है यहाँ, अशोक जी कभी नहीं बता पाएंगे… दरअसल उमट की कविता ने एक भूगोल को स्‍पष्‍ट तो किया है, लेकिन विस्‍तृत नहीं…और भाषा और अभिव्‍यक्ति की शांत लेकिन स्‍पंदित गति का मुहावरा त्रिलोचन और शमशेर जैसे वामपंथी कवि-पुरखों पर और अभी मंगलेश डबराल और असद ज़ैदी जैसे अग्रज कवियों पर अधिक लागू होता है, जिनकी वाम विचारधारा बहुत स्‍पष्‍ट है …. दअसल अशोकजी की पहेलियाँ  अब बूझ लीं गई हैं और वे उनकी चिंतन-सरणी के खिलाफ़ पड़ती हैं. थोड़ा विषयान्‍तर होगा पर एक मज़ेदार बात का उल्‍लेख करना है मुझे… यहाँ मैंने चिंतन  का प्रयोग विचार  के स्‍थान पर किया है …अपनी अध्‍यापकीय आजीविका के चलते एकाधिक शोधसमितियों में रहने का अवसर मिला मुझे और वहाँ मैंने एक बार एक विदुषी आचार्य को एक शोध-प्रस्‍ताव के शीर्षक में आए विचार  शब्‍द पर इस क़दर भड़कता पाया कि पूछिए मत…कुछ देर बाद उन्‍होंने ही स्‍पष्‍ट किया कि विचार  से तात्‍पर्य मार्क्‍सवाद निकलता है…अत: हमें इसके स्‍थान पर चिंतन  शब्‍द का प्रयोग करना चाहिए… सो अशोकजी की मुश्किलों के बारे में सोचते हुए मैंने भी विचार को चिंतन कर दिया. रही बात निराधार आशावाद की तो कहना होगा कि कोरी भावुकता से उपजा आशावाद निराधार हो सकता है पर विचार और द्वंद्व से उपजी आशा के पास तो काफी पुख्‍़ता आधार होता है…यूँ भी सबके जीवन में आशा-निराशा की ऊबचूभ चलती रहती है….इसे फ़तवे की तरह इस्‍तेमाल करना ग़लत है…निहायत ग़लत है.
बहरहाल…इसी ब्‍लर्ब में यह भी आता है – जो सहज दिया गया है उसको पहचानना और जो हमारी आकांक्षाओं-निराशाओं में गुंथा हुआ है उसे दृश्‍य करना कविता के ज़रूरी काम हैं –  बहुत ख़ूब काम बताए हैं अशोकजी ने …दुनिया-ज़माने के धर्मगत-जातिगत भेदभाव, भारतीय समाज का सदियों पुराना सामन्‍ती कूड़ा-करकट, रूढ़ियाँ , आज का बाज़ार और भी न जाने क्‍या-क्‍या …. जो हमें सहज ही दे दिया गया…उसे महज दृश्‍य करना ही कविता का काम है. हम दिए गए को दृश्‍य करने कविता में नहीं आए हैं … हम तो उस दिए गए के कूड़े को नष्‍ट करने के लिए आए हैं. किसी मेहतर के सिर पर मलमूत्र सहज दे दिया जाता रहा है…अशोकजी के अनुसार हमें सिर्फ़ उसे पहचानना और दृश्‍य कर देना है …. कविता का ज़रूरी काम हो जाएगा और समाज सड़ता रहेगा अपनी उसी सनातन गंदगी में… फिर दुनिया में कवि की ज़रूरत क्या है ? बहुत सुख का विषय है कि अशोकजी का बताया यह ज़रूरी काम अधिकांश हिंदी कविता ने नहीं किया है….जिसमें अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं को भी शामिल माना जाए. हिंदी कविता ने न सिर्फ़ प्रतिरोध से लेकर प्रतिशोध तक के दृश्‍य सम्‍भव किए हैं, बल्कि उनमें भागीदारी भी की है… मुक्तिबोध ने जीवन भर अपने सिर पर कितना मैला ढोया है…हमसे ज्‍़यादा अशोक जी जानते होंगे, जिनका उनसे व्‍यक्तिगत सम्‍पर्क और उनके कविता संग्रह में सक्रिय हस्‍तक्षेप रहा है.

2

अनिरुद्ध उमट की कविताएं दृश्‍य ही सम्‍भव नहीं करतीं, वक्‍तव्‍य भी देती हैं. इन वक्‍तव्‍यों में प्रतिकार भी होता है और एक मंद्र स्‍वर का प्रतिशोध भी. इस संग्रह में मृत्‍युबोध की सभी कविताएं इसी तनाव और तीव्रता की कविताएं हैं.

यह रात तो वही है
जिसमें आधी रात बाद हमारी बातों में
सपने हुए लापता

यह रात जिसके आंगन से

बड़ा झोला ले आने वाले के
पैरों के निशान तक नहीं हैं

यह रात वही तो है
जब हमारे बीच तैनात हुआ था भेदिया
मगर अदृश्‍य हमारे प्रेम का हाहाकार
जिसने हमें ज्ञात तक नहीं होने दिया
सिर पर से लापता हो चुके तारों के बारे में
जिसने हमें अज्ञात रखा
हम जहाँ एक-दूसरे से सटे खड़े थे
वहाँ हमारे मध्‍य था
एक सूख चुका अंधा कुंआ

इसी रात तो हमारी सांसें थम गई थीं
जब कुंए में से कोई हमारा नाम ले कर
बुला रहा था

और यह कि रात हमें लगा था कि हमारे मध्‍य
कोई रहता था जो मर गया था 
मैंने यह रात  शीर्षक की यह पूरी कविता ही उतार दी है. इसमें रिश्‍तों लेकर बहुत कुछ निजी हो रहा है….लेकिन अपना हाहाकार भरपूर है, जो कविता को निजता से बाहर निकाल लाता है … फिर कविता के उपकरण देखिए …रात का ज़िक्र … उसके आंगन में बड़ा झोला ले आने वाले के पैरों के निशान … कुछ फंतासी… कुछ भय … और वह भेदिया … मुझे मुक्तिबोध याद आने लगते हैं. वहाँ जासूस है … यहाँ भेदिया है … वहाँ बावड़ियाँ  … यहाँ अंधा कुंआ … हालांकि इन सबके स्‍वरूप ख़ासे भिन्‍न हैं लेकिन कविता के समूचे रचाव में मुक्तिबोध की छाया पसरी हुई है. मृत्‍यु का भेद यह कि दोनों में से कोई नहीं, दोनों के मध्‍य कोई रहता था, जो मर गया…अब यह इतना बड़ा भेद भी नहीं…. वह जो अदृश्‍य हमारे प्रेम का हाहाकार  आता है कविता में…वह कहीं कुछ दृश्‍य हुआ होता तो यह मृत्‍यु नहीं होती. सम्‍बन्‍धों की मृत्‍यु दरअसल व्‍यक्ति की मृत्‍यु से बड़ी होती है…उसमें एक नहीं, दो…और शायद और भी मृत्‍यु शामिल होतीं हैं.
इस पूरे संग्रह में यह बात तो बिल्कुल साफ़ है कि मृत्‍यु हर कहीं व्‍यक्ति से अधिक रिश्‍तों की है…जिस शहर गए  कविता में धोखे, स्‍वप्‍न, रातें, घातें आदि हैं और जहाँ कवि गया है, वह शहर भी गले लग कर कहता है क्‍या तर्पण करने आये हो  …और फिर न लौटने वालों की अस्थियों का पता पूछता कवि एक तथ्‍य से हमारा सामना कराता है कि तुम्‍हें अपनी अस्थियाँ  ख़ुद ही लानी पड़ीं …..और यह अंत -
यार्ड में रेल यूँ धोयी जा रही थी
जैसे किसी की अंतिम क्रिया में शामिल हो
लौटी हो घर की दहलीज़ पर

रिश्‍तों की मृत्‍यु के आगे भले कवि असहाय नज़र आए पर व्‍यक्ति की मृत्‍यु से मुलाकात का अपना सलीका बताना नहीं भूलता -

जिस क्षण तुम्‍हें मृत्‍यु
लेने आएगी

उसकी आँखों में मत देखना

सिर्फ़ कहना
देखो तुम्‍हारे हाथ कितने गंदे हैं
देखो तुम्‍हारी घड़ी कब से
बन्‍द है
मैं सोचता रह जाता हूँ ….बचपन में रूसी लोककथाओं की एक किताब में ज़ार की सेना से अपमानित और वंचित स्थिति में भूखा-प्‍यासा निकाला गया एक बूढ़ा सिपाही ज़िन्‍दगी के संघर्ष में बार-बार सामने आती मृत्‍यु के साथ बिलकुल यही करता है और बिलकुल यही कहता है….और ऐसा करते-कहते हुए वह शतायु होता है. पता नहीं कवि ने वो लोककथाएं पढ़ीं हैं कि नहीं …नहीं पढ़ी हैं, तो यह साक्ष्‍य है कि मुसीबत में पड़ा आदमी संघर्ष और अनुभूति के स्‍तर पर हर देश और काल में एक ही होता है…यही है साम्‍यवाद जीवन और विचारों का, जिसकी हम जैसे कुछ लोग अब भी दुहाई देते हुए लगातार कनफोड़ चीख़पुकार, हाहाकार और आशावाद की तोहमत झेलते हैं.

3

ग़ौर से पढ़ने पर समझ में आता है कि अनिरुद्ध उमट की कविता में आने वाले जीवन और मृत्‍यु के सब सन्‍दर्भ भले निजी लगते हों पर इनका सम्‍बन्‍ध निजता से बाहर किसी बड़ी टूटन से है. इन्‍हें पढ़ने वाले पाठक अगर इनसे जुड़ाव महसूस करते हैं तो भी यह निजता वहीं भंग हो जाती है. अनिरुद्ध उमट के यहाँ बहुत निजता है…पर यह एक भग्‍न-निजता है… गोपनीयता और निजता के बीच का फ़र्क़ भी यहाँ भरपूर है…समाज और भूगोल इनमें मुखर होकर बोलते हैं…जबकि कवि समाज के बारे में कोई सायास टिप्‍पणी कहीं नहीं करता पर वह लगातार जुड़ा हुआ है, उसे अपने जनों की फ़िक़्र है, उनके पक्ष में उसके मन में प्रतिबद्धता और प्रतिरोध, दोनों हैं – इस बारे में मैं नहीं, उमट की कविता ख़ुद बोल रही है -
किसी भूले चौराहे पर वह
बता रहा होगा
लोककला में विदूषक
और आधुनिक कला में
उदासी के उद्गम स्‍थलों को
बचाना कितना ज़रूरी है

यह भी कि इसके लिए
देह में रक्‍त
हृदय में स्‍पन्‍दन
मस्तिष्‍क में ज्‍वार भाटा
न हो

अपितु भीड़ में खड़े लोगों
अभी मैं जहाँ खड़ा हूँ
प्रार्थना करो कि यहाँ से डिग न जाऊं
इंच भर भी हिल न जाऊं

बात लगातार निजता की हो रही है तो देखो चौकीदार ज़रा ग़ौर से सुनो  की इन पंक्तियों से भी गुज़र कर देखना होगा…

भई यह मज़ाक नहीं
मगर हम आज तक समझ नहीं पाए
तुम जो रात को हमें कहते हो
जागते रहो

कौन जागता रहे हम या चोर
जो बेहद मौलिक है
हम जो बेहद पारम्‍परिक
नींद के अलावा कुछ जो सोचते ही नहीं
सम्‍भोग और सोच के परे दुनिया ही नहीं 
चोरों के मौलिक और हमारे बेहद पारम्‍परिक होने के बीच इस कविता से हमें अनिरुद्ध उमट की वैचारिक दुविधाओं के सुराग मिलते हैं…और अगर दुविधा है तो फिर कविता है…क्‍योंकि कविता हर वक्‍़त में दुविधाओं से सतत् सामना भी रही है. ख़ुद कवि अपनी एक कविता में कहता है – अनुनय ही क्‍यों हठ क्‍यों नहीं  ….  मतलब हिंदी कविता में सात सौ साल पुरानी हठ-परम्‍परा से उसका न सिर्फ़ परिचय है, बल्कि वह उसका सम्‍मान भी करता है.

4

कभी शानी ने हिंदी कथा-साहित्‍य में मुस्लिम पात्रों की लगभग अनुपस्थिति पर प्रश्‍न उठाया था, जिसे हिंदी कविता के सन्‍दर्भ में भी जस का तस देखा जा सकता है. वाकई मुस्लिम पात्रों की आवाजाही कम है कविता में… 1960 से 2000 तक की कविता में यह एक हद तक है पर इधर की कविता में तो बिलकुल ही कम. अनिरुद्ध उमट के इस संग्रह में यह आवाजाही है – अली मियाँ  सिरीज़ की चार कविताएं हैं और कुछ दूसरी कविताओं में भी बड़ी बी जैसे पात्र मौजूद हैं. यह दरअसल सायास नहीं होना चाहिए कि आपकी कविताओं में किसी ख़ास तबके़ का जिक़्र आए. जान-बूझकर कर ऐसा करना, न करने से भी बड़ा अपराध होगा. इसे हमारी सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं में देखना होगा. समुदायों के बीच बढ़ते अलगाव को उसके कारणों के साथ परखना होगा. भारतीय समाज धर्म और जाति के नाम पर लगातार टूटता समाज है….विखंडित समाज…उत्‍तरसंरचनाओं का समाज…जबकि इसी समाज में टेक्‍नोलोजी और सूचना प्रौद्योगिकी के भव्‍य भवन भी हैं….इसलिए फ्रांस से आओ…अमरीका से आओ, हे उत्‍तरआधुनिकतावादियो आओ … तुम्‍हारे लिए हमने यह महान भारतीय प्रयोगशाला तैयार की है. बिना आधुनिकता जाने उत्‍तरआधुनिक हो गए हैं हम. बिना विज्ञान जाने हमने अपने टैक्‍नोक्रेट महामहिम तैयार किए हैं… एक भी ठीक-ठिकाने का मनोविज्ञानी नहीं दे पाए हम पर फूको के लिए हमारे विद्वान बांहें पसारे खड़े हैं….
ख़ैर जाने दीजिए मैं एक भटका हुआ आदमी हूँ….बहका हुआ भी…. किसी पर बात करना चाहता हूँ और किसी पर करने लगता हूँ…तैयारी कुछ और होती है …..काम कुछ और…बहरहाल,  अभी हम देखते हैं उमट के अली मियाँ  को –

मियाँ  जी तुम्‍हारे तहमद में कितने पैबन्‍द
दाढ़ी में तिनके कितने
जाले कितने आंख में
छाले पांव
हाथ में लकीरों का हुजूम कितना कितना

सिर पर आसमान कैसा काला
और भारी
जिसमें तारों की आहो-पुकार
मुंह में जली रोटी-सा चांद

घर में दीवारों की टकराहट
खिड़कियों की भड़भड़ाहट
दरवाज़े की दीमक

मियाँ  जी तुम्‍हारी हर पतंग
कटती
हर धागा टूटता

क़ब्र तक से आती
बदबू तुम्‍हारे बदन की

तुमने जो अपनी निज़ात का नुस्‍खा लिखा
वह तक लापता 
मियाँ  जी मुसलमान हैं तो तहमद में लगे पैबन्‍द यह तय कर देते हैं कि वे किस वर्ग के प्रतिनिधि हैं. उमट की कविता में यह वर्गबोध है…और इस कविता के अलावा और जगह भी है. ये कविता मुझे वहाँ ले जाती है, जिसे अतीत कहते हैं और यहाँ ले आती है, जिसे वर्तमान कहते हैं – बीच में मुझे एक पूरा जटिल सामाजिक नक्‍शा मिलता है – मुझे सहज दे दिए गए विरूपित संस्‍कार मिलते हैं -  मुझे अयोध्‍या की ओर जाती उन्‍मादी भीड़ मिलती है, मैं उस भीड़ से बुरी तरह पिट जाता हूँ…लहूलुहान घर आता हूँ – रात को मेरे दरवाज़े पर पत्‍थर मारे जाते हैं – मेरी दीवारों पर कोयले से गालियाँ  लिखी जाती हैं – फिर मैं कुछ अपने में लौट पाता हूँ – लक्ष्‍य बेध देने के बाद उन्‍माद भी थमने लगता है – अपराधियों की ताज़पोशियाँ  शुरू होती हैं – मैं देर रात तक घर से बाहर भटकता हूँ – फिर जीवन में गुजरात आता है – मैं ख़ुद पूछना चाहता हूँ कि क्‍यों मियाँ  जी की हर पतंग कटती है…हर धागा टूटता है…क्‍यों उन्‍होंने जो अपनी निज़ात का नुस्‍खा लिखा था, वह तक लापता है खा े ‍हेवित हैं और उन्‍हें . मुझे आजकल इतनी बार टूटने के बारे क्‍यों लिखना पड़ता है …. क्‍यों, आख़िर यह निरन्‍तर अलगाव, जो किसी नियम में बांधा नहीं जा सकता…. बेलगाम …. क्‍यों – क्‍या संसार में बची हुई मनुष्‍यता भी अब इसे रोक पाने में असमर्थ है….जबकि दुनिया भर में उस बची हुई मनुष्‍यता के कवि भी जीवित हैं और कविता भी…

5

कुल मिलाकर यह संग्रह एक अटूट तनाव में बिंधी हुई कविताओं का संग्रह है. इन कविताओं से हुए मेरे इस लम्‍बे और आत्‍मीय, फिर भी आधे-अधूरे संवाद में शायद मैं हावी रहा हूँ …. इसके लिए मैं इस अग्रज कवि के प्रति खेद भी प्रकट करना चाहता था…पर उसी की इन पंक्तियों ने रोक दिया है -

उससे कुछ कहना नहीं
वह भी कुछ कहेगा नहीं
वह आ रहा है
उसमें लीन मत हो जाना

वह मिले तो पूछना नहीं
सिर्फ़ कहना भर
तुम यहाँ क्‍या कर रहे हो
अभी तो तुम पृथ्‍वी से पांव छुड़ा रहे थे
अभी तो तुम्‍हारे सिर पर आसमान
आ गिरा था.

रविवार, 24 अगस्त 2014

डायरी एक ताबूत

डायरी एक ताबूत




1-
‘डायरी में मैं अपने डर का सामना करता हूँ और अपने शून्य की पैमाइश और अपनी कमजोरियों की जांच पड़ताल. अपने अँधेरे का जायजा भी लेता हूँ. अपने दिन का सामना करने के लिए अपने आपको आमादा करता हूँ. लेकिन साथ ही इस खतरे और ख्वाहिश का साया भी बना रहता है कि मेरे बाद कोई इसे पढ़े [पढ़ेगा], इसमें कई अनुमान लगाए [लगाएगा], इसे प्रकाशित करे[करेगा]. इस साए के कारण मैं इसमें भी सब कुछ नहीं लिखता, लिख सकता. पूरी ईमानदारी और उरयानी यहाँ भी संभव नहीं.’
2-
‘डायरी में भी सब कुछ दर्ज नही किया जाता. उस डायरी में भी नहीं जो छपवाई नहीं जानी है. मतलब यह कि ख़ुफ़िया डायरी पर भी यह खौफ हावी रहता है कि कोई मुझे पढ़ लेगा.’
--कृष्ण बलदेव वैद
‘जब मेरा बाकी लिखना छूट जाता है, अरसे से छूटी हुई डायरी शुरू हो जाती है. क्या यह एक तरह की क्षति-पूर्ती है, घर के अभाव को बेघर अनुभवों से भरने की लालसा ? ....जो मेरा अतीत है, वह इन डायरियों का वर्तमान है, इसलिए पुरानी पोथियों से उतार कर इन्हें दुबारा से टीपते हुए मेरा कालबोध बार-बार हिचकोले खाने लगता है. यह नहीं लगता, हम अतीत की पुनरावृति कागज पर कर रहे हैं, बल्कि यह लगता है कि हम वर्तमान में अपने को दुबारा से व्यतीत कर रहे हैं, कि वर्तमान के इस क्षण में- जब मैं डायरी टीप रहा हूँ- मैं एक दूसरा वर्तमान जी रहा हूँ. कभी-कभी तो मुझे गहरा अचरज होता था कि क्या यह सचमुच मेरे साथ घटा था, जिसे मैं टीप रहा हूँ ?’
--निर्मल वर्मा

‘निराशा और घुमड़ती हुई वेदना और छटपटाहट के क्षणों में जब कि मैं इस कमरे से उस कमरे मंडराता रहता हूँ या बिस्तर पर खामोश पड़ा रहता हूँ या सड़कों पर अपने को मुश्किल से थामे चल रहा होता हूँ – इस बात की एक प्रतीक्षा-सी रहती है कि जब इस कापी को निकाल कर कुछ लिखने बैठूंगा तो सब कुछ सहार ले जाऊंगा. पर इस ‘कन्फेस’ करने के क्षण को अपने नजदीक खींचने में न जाने कैसे घबराहट और भयंकर उदासीनता घेर लेती है और काँटों की तमाम नोके मेरे कलेजे के नर्म मांस में चुभते-चुभते कुंद हो जाती है और भारी पानी की एक नमकीन में मैं डूबने लगता हूँ. चुपचाप पड़ा रहने दो मुझे-बिस्तर पर लेटी हुई मेरी काया के भीतर तिल-तिल नष्ट होते जाने का ख्याल एक उस रुंधे हुए आवेग की तरह मुझे हिलाने लगता है जिसके भाग में आंसू के कुछ कतरे भी नहीं.......एक सूखी जलन, बस-एक हरी चीज के जलने की रुंधी हुई सिस्स सिस्स और हवा जो धुंए की लटदार पतली पेंचों में फाहे से उठते हैं और उठने के साथ ही ‘फेड’ हो जाती है ....’
--मलयज

डायरी- एक लेखक की डायरी तो ख़ास तौर पर –मुझे लगता है- तभी उसके खुद के अलावा दूसरों के भी काम की चीज हो सकती है जब उसमे दर्ज हुई बातें कुछ ऐसी हों, जिनमे बहुत अलग अलग स्वभावों, रुचियों और दृष्टियों वाले सहृदय पाठक भी साझा कर सकें. लेखक का प्राक्रतिक और मानवीय पास-पडौस, उसके राग-विराग, आकषर्ण-विकर्षण, उसकी रीझ-बूझ या नैतिक कल्पना-संवेदना को उत्तेजित करने वाली घटनाएं, प्रवृत्तियां यहाँ तक कि अध्ययन प्रसंग तक, उसके सर्वथा निजी ऊहापोह भी क्या किन्हीं ओरों के लिए रुचिकर और सार्थक नहीं हो सकते ? हम सभी मानवजीव निरपवाद रूप से रात-दिन अपने आप से और अपने आसपास की दुनिया से झगड़ते रहते हैं. जिस झगड़ने में कभी कभी दूर या निकट के हमारे पुरखों की प्रतिध्वनियाँ भी अपने आप शामिल हो जाती है. तो यह जो अजस्र आत्मालाप या वाद-विवाद-संवाद हमारे चाहे-अनचाहे ही हमारे भीतर चलता रहता है- डायरी क्या उसी को पकड़ने और दर्ज कर लेने की अन्तर्विवशता के कारण ही नहीं लिखी जाती ?’
--रमेशचन्द्र शाह

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कोई खिड़की है .

एक तरफ से देखें तो लगता है कोई उस तरफ से पुकार रहा है, जैसे वह खिड़की के रास्ते भीतर आना चाहता है. कोई उस पुकार पर उस तरफ के अँधेरे में झांके और अपना हाथ बढ़ा दे.
उस बढ़े हाथ को संभव है कोई थाम ले.

या ये भी संभव है कि उस बढ़े हाथ को ही कोई अपनी तरफ खींच ले.

वह उस तरफ बैठा ही शायद इसलिए है कि कोई कभी उसकी पुकार पर इस तरफ झांकेगा, हाथ बढ़ाएगा.और तब वह उसे इस तरफ खींच लेगा.

इससे पृथक यह भी हो सकता है कि कोई किसी रात इस खिड़की से उस तरफ कूद जाए. उसके जाने की कोई आवाज न हो.वह अँधेरे में घुल जाए.
कभी फिर किसी समय जब इस खिड़की को देखे तो उसे ये किसी फन्दे सी अपने गले में कसती नजर आए.

बरसों तक न किसी को यह दिखाई देती है न इसकी जरूरत महसूस होती है. हमे लगता है किसी ने यह खिड़की यूँ ही खुली छोड़ दी है. कई बार हम इसे बंद कर देते हैं. कई बार नजरअंदाज कर देते हैं. कई बार सोचते हैं खिड़की का ख्याल कितना व्यर्थ है.

अभी रात गहरा रही है और मैं अपने अँधेरे कमरे में कुर्सी पर बैठा देख रहा हूँ कि बाहर सब तरफ अँधेरा है पर खिड़की के रास्ते कोई मुझे यहाँ बैठे देख रहा है.

कोई देखना चाह रहा है या मैं चाह रहा हूँ कि कोई मुझे देखे. कोई क्यों देखना चाह रहा है या मैं क्यों चाह रहा हूँ कि कोई मुझे देखे ? अदेखे-अनचाहे क्यों नहीं रह लिया जा रहा ?

डायरी ....क्या ऐसी ही कोई खिड़की है ?

कोई झांकता है तो इसमें क्यों झांकता है ? पुकारता है तो क्यों पुकारता है ? सुनना चाहता है तो क्यों सुनना चाहता है ?

'बहुत चुपचाप, अपने अँधेरे में कोई कुछ इसमें बडबडाता है.कोई इस बडबडाहट पर कान लगा फटी आँखों से देखता रह जाता है, पर क्यों वह कान लगाता है?

कहते हैं हर कोई कुछ कहना चाहता है पर बहुत कुछ कह नहीं पाता. सब तरह से कहने के बाद भी कुछ रोक लिया जाता है, कुछ रुक सा जाता है.
कोई कुछ कहना चाहता है पर चाहता है कि उसे कोई सुने नहीं. सुने तो इस तरह कि जैसे कभी कुछ सुना ही नहीं .

ऐसा अँधेरा कहन जो न कहते बने न सुनते, उसके लिए मध्य रात के पंजों की गर्म व् धीमी कसावट तत्पर रहती है. जो हाथ किसी के गले पर कस रहा है वह हाथ किसका है – यह चिंता नहीं रहती. वह सिर्फ हाथ होता है. इसका या उसका ....किसी का नहीं.

शनिवार, 14 जून 2014

प्रिय-------मचान खाली है
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-अनिरुद्ध उमट


1
मचान पर जो बैठा है वह शिकार की पतीक्षा में नहीं बल्कि उस क्षण की प्रतीक्षा में है जब उसका शिकार कर लिया जाएगा।

वह जाने कब से वहाँ सांस रोके बैठा रहता है।  वह किसी छल से शिकार करने नहीं बैठता।  इस मचान पर उससे पहले भी कई लोग बैठे हैऔर अचूक निशाने और अपार धीरज के चलते वांछित शिकार कर ही गए हैं।
पर यह जो बैठा है उसके पास कोई हथियार नहीं है कोई बचाव का साधन नहीं है, उसके पास सिर्फ अपना आप है जिसे उसने मचान पर बैठा दिया है।  आंधी, बारिश, सर्दी, गर्मी जैसे यहाँ अपना असर खो देते हैं।

एक लेखक अपनी मेज पर इसी तरह बैठ सकता है।

अपने भीतर की हलचलों, स्वप्नों, भय,कुंठा से सना किसी के आगमन की प्रतीक्षा [या भय ] में-----किसी आहट को सूंघता वह बार-बार खुद को टटोलता है कि कहीं किसी तरह की चूक उसे उस क्षण से वंचित न कर दे।

उसकी भाषा एक पतली गली की तरह उसे अपने में पुकारती है।  उस पुकार से बंधा वह बंद दरवाजों, खिड़कियों की गली में प्रवेश कर जाता है।  जब वह सामने देखता है तब दरवाजे, खिड़कियाँ बंद नजर आते हैं पर जैसे जैसे वह आगे बढ़ता है उसकी पीठ देखती है कि दरवाजों, खिड़कियों ने खुद को खोल दिया है।  बंद दरवाजे, खिड़कियाँ उसे आगे खींचते हैं पर उसकी पीठ पर खुले दरवाजों, खिड़कियों का भार बढ़ता जाता है।

किसी क्षण शाम होते-होते वह गली की किसी मोड़ पर मुंह के बल गिरा पाया जाता है।
उसकी पीठ पर गली भर के दरवाजों, खिड़कियों का ढेर होता है जिस पर एक चिड़िया फुदकती है।
मुंह के बल गिरा वह सांस भी नहीं ले सकता क्योंकि ऐसा करने पर वह चिड़िया भय से उड़ सकती है।

मेरा प्रिय लेखक इसी तरह उस चिड़िया के बने रहने में सांस को कसे रहता है।

मैं जब उसके सामने बैठता हूँ तब वह संकोच और संशय से अपनी नजर उन कागजों पर बैठा देता है जो कुछ कोरे हैं कुछ भरे हैं।  वह चाहता है उसकी नजर उन कागजों पर उसी तरह रह पाए जिस तरह गली में मुंह के बल पड़े व्यक्ति की पीठ पर दरवाजों, खिड़कियों के ढेर पर बैठी चिड़िया रह पा रही है। चिड़िया तो अपने मन से उड़ भी सकती है किन्तु मेरी नजर उन कागजों के ढेर पर एक बार पड़ने के बाद उड़ नहीं सकती।

अजीब सा दृश्य होता है तब, कभी वे कागज उसे खाते हैं, कभी वह कागजों को खाने लगती है।

अरसे बाद ये भी पता नहीं चलता कि कौन किसको खा रहा है।

2
वह उठता है और खिड़की से बाहर देखता है किन्तु खिड़की से बाहर उसे वही मेज और उस पर झुका कोई दिखाई देता है।  वहां भी कोई उसकी मेज के सामने बैठा है।

3
प्रिय लेखक का एकांत अपने पाठक से किसी गूंगे गान या प्रलाप या विलाप की तरह बार-बार कहता है कि वह कुछ देर के लिए उसे अकेला छोड़ दे।  अभी वह तुम से भी अधिक खाली और खोखला है।

उसकी किताबें किसी दुस्वप्न की तरह उसे हर क्षण उसके व अपने अधूरे होने का अहसास कराती ----चिडचिडी सी ------उसे चींधती रहती है।

हर दिन वह अपनी उम्र में देखता है भाषा उससे जिस लहजे में शिकायत करती है वह मरने से कम नहीं। जिसे बरसों तक इसी तरह मचान पर बैठ-बैठ उसने अपने अपने को तिल-तिल देते हुए, खुद का भक्षण कराते हुए अपनी आत्मा में मंडराने का अवसर पाया वह भाषा ही एक उम्र बाद अपने अधूरेपन के उलाहने से उसे बींधते रहती है।

मेरा प्रिय लेखक भाषा के उलाहने से बिंधा अपनी नजर में अभियुक्त सा अँधेरे में खुद से छिपता हुआ कुछ लिखता है।
उसकी लगभग समस्त चाह्नाएं सूख चुकी है।
उसकी लगभग समस्त आग बुझ चुकी है।
उसकी लगभग समस्त राख उड़ चुकी है।

अपने ऐसे अकेले प्रिय लेखक के लिए पाठक क्या करे ?

4
एक गली खुलती है जिसमें हर घर के दरवाजे, खिड़कियाँ खुले हैं।  पाठक दोपहर  की तपती धूप में एक घर में प्रवेश करता है किन्तु दूसरे  घर से निकलता है।
कहीं कोई छाया या साया नहीं।  कोई आवाज का सूखा पत्ता नहीं।  वह दिन भर इसी तरह भटकता रहता है।

एक बच्चा उसे दूर से यूं देखता है जैसे वह घरों में भटक नहीं रहा बल्कि किसी किताब को पढ़ता किसी दृश्य में स्थिर हो सूखे पत्ते सा फड़फड़ा रहा है।

वह बच्चा दौड़ कर आता है और उसके कान में कुछ बुदबुदाता है।

बच्चा देखता है उसका कहा गया किसी के कान में पथरा गया है।  वह रुआंसा-सा उलटे पाँव गली से बाहर भागता है।
गली से बाहर भागता वह किसी किताब से बाहर भागता दिखाई देता है।

भाषा उस दिखने में खुद को मरते देखती है।

5
मेरे घर में ढेरों किताबें थीं लेकिन मेरी पहुँच से परे।
मेरे घर में बहुत सी किताबों की गंध में मेरे पिता की आवाज थी।

किसी दिन उन्होंने सारी किताबो को छत पर धूप में बिछा दिया।  धूप सेकती उन किताबों के उस दृश्य को देखता एक दिन मैं देख रहा था कि दीमकों ने उन्हें कुतर डाला है।  उनकी रेत में पिता की भीगी आँखे थीं जिन्हें मैं जीवन भर फिर भूल नहीं पाया।
एक दिन जब भरी दोपहर मेरे पिता खुली आँखों इस दुनिया से चले गए तब से मैं इस चिंता में जाने क्या-क्या जतन करता रहा कि वे अपनी उदास आँखें मूँद लें।

भाषा और पिता ने अपने मरने की आवाज भी नहीं होने दी।

6
प्रिय लेखक के एकांत की गुहार अरसे बाद मेरे गले से फूटने लगी।
मैंने ईश्वर से कहा मेरा पाठक कोई न हो कम से कम इतना रहम कर दो।
ईश्वर ने बेरहमी से मेरा कहा अनसुना कर दिया।

अपने कंधे पर जल से भरा घड़ा लिए मैं जाने कहाँ खुद को जाते देखता हूँ।

मेरी मेज पर एक भी सूखा कागज नहीं बचा है।

मेरे कमरे में रखे घड़े क सूखापन बताता है कि उसमें जल भरे जन्मों हो गए हैं।  मेरे कमरे में दीवारों पर लगे फ्रेम में कोई तस्वीर नहीं।  केलेंडरों में कोई तारीख नहीं।

फिर भी एक भय जो मरा नहीं देर रात बिना दस्तक दिए वह पाठक की शक्ल में मेरी मेज के उस तरफ आ बैठता है।
वह कहता कुछ नहीं। अपलक मुझे देखता रहता है।  उसके पास एक झोला होता है जिसमें जाने कितने मुखौटे होते हैं। वह कुछ देर बाद एक-एक कर वे  मुखौटे मेरी मेज पर रखता रहता है।  मेरी मेज पर उन मुखौटों का ढेर लग जाता है।  अब हम एक-दूसरे को नहीं देख पा रहे थे।  उस ढेर पर हमारा न देख पाना गुमसुम सा बैठा था।
उस तरफ वाले को खबर न हो मैं इस तरह से उठता और दुसरे कमरे में चला जाता जहां मेरे न लिख पाने के सारे पिछले दिन इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं।
उधर उस तरफ बैठा भी उसी तरह उठता और मुझे खबर न हो उस तरह मेरे पीछे आ खड़ा होता।
उसका खड़ा होना मेरी पीठ पर लद जाता।  और मैं उस बोझ से मुंह के बल गिर जाता।

7
कोई सुबह है ।  नहीं है।  कोई वीरान दोपहर है।  नहीं है।  कोई बोझिल शाम है।  नहीं है।  कोई मारक रात है।  नहीं है। नहीं होने में कुछ होने का भीगा सा कंपन है।  वह एक-एक परत उतर रहा है।
लेखक और पाठक एक-दूसरे के पूरक नहीं।
दोनों में से कोई एक रहेगा।  एक है कोई जो दूसरे की चाहत से सना है वह उसे मार देगा।  वाज जानता है जीवित रह कर वह उसका नहीं हो पायेगा।
एक कहेगा यह सैरगाह नहीं है।
दूसरा कहेगा यह मरघट है।
एक कहेगा यह मैं नहीं हूँ।
दूसरा कहेगा वह मैं नहीं हूँ

कोई छाया का गुट्ठल  है।

8
प्रिय लेखक के तपते ललाट पर किसी की तपती हथेली है।
कोई कहेगा तुम लिख लो।
वह कहेगा तुम मुझे लिखने मत दो।

9
जब किताबों को बहुत पढ़ा जाता है तब वे अनपढ़ी रह जाती है।  कुछ को लेखक कभी नहीं चाहता कि पढ़ा जाए वही बार बार पढी जाती है।

10
हर बार प्रिय लेखक पाठक को अपना-सा होने का वहम देता है।  कोई पाठक लेखक को अपना प्रिय होने का वहम नहीं दे सकता।

11
कोई देह मात्र रह जाता है इधर से उधर धकियाता।  ठेलता।

12
भाषा बरसों में कभी किसी दुर्लभ-मारक क्षण इस दृश्य को पीती है।  उसकी अतृप्ति जन्मो की सी लगती है।  जिसे पीया जा रहा है वह बरसों का अभागा लगता है।

13
किसी घर को मुखोटों का अंधड़ अपने में लील लेता है।
सुबह वहाँ कुछ नहीं पाया जाता।

14
उस कुछ नहीं की जगह पर कुछ न होने का विस्मरण पसरा होता है।

नहीं कोई कथा नहीं।

15
किसी को कोई, किसी का हाथ थामे, कंधे पर हाथ रखे ले जाता-सा दीखता है।

16
मचान खाली है।
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अनिरुद्ध उमट
माजी सा की बाड़ी,
राजकीय मुद्रणालय के समीप,
बीकानेर ३३४००१

०९२५१४१३०६०





  

रविवार, 27 अप्रैल 2014

मुस्कान का हरा स्मरण

मुस्कान का हरा स्मरण

सुख का साया
साए का सुख
नहीं

पलकों पर
आकाश
का
काश

स्थगित
सम्बोधन में
महकता
गारा
राग का

होने का न होना
निर्बंध 

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

धोरों पर मांड राग में ऊंटनी की चाल सी कोई आवाज

मूमल धोरों पर एक कामना हिरणी सी
जिसे अल्लाह जिलाई बाई ने बरसों बाद अपने कंठ में बसाया.

चांदनी रात में धोरों पर बेसुध कोई छाया
जिस पर बेसुध छाया देखती है 
लाल ओढने में पलकें मुंदी है और होंट हल्के से खुले हैं 
जैसे कोई जाप करते करते सपने की बावड़ी में उतर गया हो .
....अभी अभी .

देखने वाला अपनी छाया में किसी की छाया का घुलना देखता किसी की साँसों को पीता है .

धोरों पर मांड राग में ऊंटनी की चाल सी कोई आवाज उसे कहती है
 ....हाले तो ले चालूँ मरवण देस.

मूमल धोरों पर ......
उसकी दोनों पलको के मध्य कोई हल्की गुलाबी पंखुड़ी रख गया है  ...

जो सपने के जल पर थिर है .

ठोडी पर जो आधा चाँद था 
वह फिसल कर सीने पर पिघलने लगा .

और उधर अल्लाह जिलाई बाई का आवाहन 
.....हाले तो ले चालूँ रिझालू रे देस
गा कर कोई मूमल हुआ जा रहा .....

दूर खेजड़ी पर कमेड़ी की कूक से 
रात की  हूक मूमल के ओढने को फड़फड़ा रही .


एक छाया उस ओढने में झांकती सी बुदबुदाती है .......मूमल .....चलें .....
बालू रेत पर नागिन पूछती है कहाँ जायेगी मूमल.

छाया घुल जाती है कंठ में 

सूखे पोखर जल की छल छल स्मृति में 
हरिया जाते 
जिसमे मूमल अपना चेहरा देखती 
जिसमें कोई अदृश्य हाथ उसके चेहरे पर बिखरे बालों को हटाता 
कान के नीचे कुछ लिख देता है 

मूमल की हथेली पर वह लिखा काजल की टिकी सा 





बुधवार, 16 अप्रैल 2014

nn 

भुला चुके बहुत से चूल्हों का सामूहिक दहन है ...गोपालन का दिलरुबा वादन सुनते हुए

उसे सुनते हुए नहीं याद करते हुए सुना जा सकता है....
......शायद......

वह जब हो रहा होता है दिन के ढलने की थकान और रात के फन उठाने के बीच 
तब तुम नीली स्याही को अँधेरे में लाल स्याही में तब्दील होते देखते हो . और अँधेरे में शब्द अज्ञात कीड़ों से तुम्हारी देह पर फिसलने रेंगने लगते है 

वह अभी ढलती भारी शाम को मृतकों की राख पर हवा सा ठहरा है .
वह अभी बरसों के ठहरे जल पर काला पत्ता है जो हरी सिसकीयों में पक्षियों के पंखो पर पसर रहा है .
बावड़ी में अभी एक कबूतर एक-एक सीढ़ी उतर रहा है.
उसकी छाया मगर उससे पहले जल की स्मृति में जा डूबी है.

एक गूँज में बावड़ी का अँधेरा अपनी गाँठ में और कसता जा रहा है .
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जिस धोरे पर बैठी एक छाया स्मृति में कोई नाम सिमर रही थी
उसे धोरा धीरे - धीरे अपने में उतारता उसका भख ले रहा था.
जिसे दूर खेजड़ी की जली छाया में पड़ी केंचुली देख रही थी.

चिड़िया जितनी भी ....केंचुली जितनी भी निशानी बाद में धोरे पर नही मिलेगी कि कोई यहाँ स्मरण में लीन था ---धोरा भी किसी का स्मरण है 
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शोक में डूबे लोगों को बर्फ पर लिटा कर गोपालन तुम्हारा दिलरुबा वादन सुनना चाहिए .
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कांच पर हीरे के टुकड़े की खरोंच जिस तरह चलती है ......उससे भी तीखा भेदन है तुम्हारे वादन में .
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तीखा 
मगर बहुत ठंडा ---ठहरा .
जैसे ये कोई विराट जल राशि का ठहरा प्रवाह है जिस पर हमारी स्मृतियाँ ...शवों सी आती जा रही है जाती जा रही है .
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हवा में एक मरोड़ है .
मरोड़ में कंठ की दीवारें भुरभुराती ढहती है .
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पहली बार जब इसे सुना तो लगा अगले ही पल जिस कमरे में पड़ा हूँ वह मुझसे पहले बाहर भागेगा ---अपने कानो पर हथेलियाँ रखे . सामने दूसरे वाले कमरे में  , जहां दूसरा कमरा अपना दरवाजा बंद कर लेगा .
वह कमरे के बाहर के भीतर में शेष रह गया अपने भीतर के बाहर छिटका अपने बाहर से निर्वासित.

अपने भीतर में शव सा ठंडा होता ...
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विरह की छाया हर कुछ का भक्षण कर लेगी .
हूक .....सिसकी 
ठंडा होता दीपक.....

बेआवाज सपनों पर गिरती रेत.

हर जगह अभी खाली है .
जगह अपने आप में अभी जगह नहीं 

चीज़े अपने आप में मर भी नहीं पा रही .

आलिंगन में भिंचे -भींचते हमारे दांत भिंच जाते हैं और कानों के पर्दे सीले होते एक रूदन की काली छाया में खुद को तब्दील होते देखते हैं .
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तुम्हारा वादन अपने यंत्र का ईश्वर से सीधा अंत्येष्टि कर्म का उपक्रम है .
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तुम्हारा वादन प्रेम का गूंगा स्मरण ....फटी....छाया सा .

यहाँ सिर्फ छायाएं एक दूजे में गुँथी है .

कहीं कोई है 
कहीं कोई नहीं है 
कहीं .........
चले गए की खाट है 

एक भीग कर सूख चुका पत्र है .
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किसी चेहरे पर बरसों पहले जा चुके की खुरदुरी हथेली का स्पर्श है 
जिसमें किसी शाम तुम्हारी आधी खाई बाजरी की रोटी की गंध है .

कहीं कोई चूल्हा है 
जिसका अंतिम कर्म नही हो  पाया .
---तुम्हारे वादन में ऐसे लापता, ऐसे अदेखे, ऐसे भुला चुके बहुत से चूल्हों का सामूहिक दहन है .

गोपालन तुम्हें होना था .
दिलरुबा वाद्य के लिए 
.....मेरे लिए ....

मुझ  जीते जी की  सिर्फ तुम ही अंत्येष्टि कर सकते हो ...थे .

तुम्हारी 
...............................................................................मैं.......