रविवार, 25 अगस्त 2013
रविवार, 18 अगस्त 2013
अभी केनवास पर एक छाया चाकू सी गिर रही है
अधूरी कविता या अधूरे चित्र की तरह शाम को एक सूखा बरगद याद आता है
जिसके नीचे बिल्ली द्वारा अधखाये कबूतर सा कोई पंख -पंख इधर उधर बिखरता है।
मेरे लिए बादलो में दोड़ते तारो को रोक देने वाले हाथ
पाताल से ओक भर शीतल जल लाने वाले हाथ
अभी केनवास पर एक छाया चाकू सी गिर रही है
जिसके नीचे बिल्ली द्वारा अधखाये कबूतर सा कोई पंख -पंख इधर उधर बिखरता है।
मेरे लिए बादलो में दोड़ते तारो को रोक देने वाले हाथ
पाताल से ओक भर शीतल जल लाने वाले हाथ
अभी केनवास पर एक छाया चाकू सी गिर रही है
गुरुवार, 15 अगस्त 2013
अभी जिस गले से तुम फफकोगे वह भी तुम्हारा नही।
अक्सर शाम को लगता है जैसे बाजुओं में किसी ने अंतिम सांस ले अपनी देह गीली कच्ची शाख सी ढीली छोड़ दी है जिसे मैं सम्हालने में ढहता जा रहा हूँ।
जब तक हम नही मरते तब तक हम यूं ही मरते हैं.
फिर मरे अंग में ढीठ हरकत होती है और हम खुद को उठा खुद में गिर जाते है।
पूरा दिन सूना आँगन और घड़ी की टिक टिक हमारे भीतर पसरते जाते है जैसे रेतीला टीला धीमे धीमे सब कुछ को खाता आगे पसरता जाता है.
कमरे में किताबें और तस्वीरे हमारा इन्तजार करती है जिन्हें कुछ देर के लिए दीमको ने खाने से छोड़ दिया है। यह उनका चश्मा है जिससे उनने मुझे आख़िरी बार टेढ़ी नजरों से देखा था, क्या उन्हें , मुझे तब पता था ?
ये उनकी चप्पले जिन पर आख़िरी भ्रमण की रेत थी।
अभी जिस गले से तुम फफकोगे वह भी तुम्हारा नही।
बाहर ठंडा भीगा अन्धेरा है जिस पर अभी तुम नंगे पाँव चलोगे।
जब तक हम नही मरते तब तक हम यूं ही मरते हैं.
फिर मरे अंग में ढीठ हरकत होती है और हम खुद को उठा खुद में गिर जाते है।
पूरा दिन सूना आँगन और घड़ी की टिक टिक हमारे भीतर पसरते जाते है जैसे रेतीला टीला धीमे धीमे सब कुछ को खाता आगे पसरता जाता है.
कमरे में किताबें और तस्वीरे हमारा इन्तजार करती है जिन्हें कुछ देर के लिए दीमको ने खाने से छोड़ दिया है। यह उनका चश्मा है जिससे उनने मुझे आख़िरी बार टेढ़ी नजरों से देखा था, क्या उन्हें , मुझे तब पता था ?
ये उनकी चप्पले जिन पर आख़िरी भ्रमण की रेत थी।
अभी जिस गले से तुम फफकोगे वह भी तुम्हारा नही।
बाहर ठंडा भीगा अन्धेरा है जिस पर अभी तुम नंगे पाँव चलोगे।
सोमवार, 12 अगस्त 2013
आंसुओं की जगह हो सकती है किरचें
आईने के आजू बाजू
अन्धेरा जो है
उसे
छेड़ो मत
वह किन्ही चेहरों का
छूटा स्मरण है
और जो दीखता है
वह
दीखने का
सूना आवाहन
तुम जहां हो
वहीं धंसे रहो
वहीं से आईने का झरना
फूट पडेगा
अभी अभी एक छाया गुजरी
बीचोबीच कटी
रक्त के धब्बे कवि के चेहरे पर गिरे
जब सब सो जायेंगे बिस्तरों
कब्रों में
एक कवि
स्याह आसमान में
किन्ही पलको को चूमेगा
और
उसके चेहरे पर आंसुओं की जगह
हो सकती है
किरचें
ठंडी और तीखी
रविवार, 11 अगस्त 2013
न भूलने ने बहुत मारा
लगा जब
भूल रहा हूँ सब
तब
न भूलने ने
बहुत मारा
दो दीवारों मध्य
जैसे
ढह गयी हो रात
अपना आप उठाया
और
चीलों के
हवाले
कर
दिया
भूल रहा हूँ सब
तब
न भूलने ने
बहुत मारा
दो दीवारों मध्य
जैसे
ढह गयी हो रात
अपना आप उठाया
और
चीलों के
हवाले
कर
दिया
शनिवार, 10 अगस्त 2013
झांकता हर खिड़की से एक ही चेहरा
रात की रेल
-----------
घने जंगल को चीरती
दौड़ी जाती
धड़ -धड़ --धक
झांकता हर खिड़की से
एक ही चेहरा
बाहर हर पेड़ की हर पत्ती
हर जीव हर पक्षी हर रंग में
मैं अपनी ही जगह घूमता
रेल अपनी पूंछ में बांधे
घुमाती
जंगल समूचा
किसी सुबह धूप में रेल
यूं पड़ी मिलती
जैसे सांप ने
उतारी हो केंचुली
पेड़ों - पक्षियों -जीवों ने भी
जीवन का भारी चोला
उतार फेंका हो
-----------
घने जंगल को चीरती
दौड़ी जाती
धड़ -धड़ --धक
झांकता हर खिड़की से
एक ही चेहरा
बाहर हर पेड़ की हर पत्ती
हर जीव हर पक्षी हर रंग में
मैं अपनी ही जगह घूमता
रेल अपनी पूंछ में बांधे
घुमाती
जंगल समूचा
किसी सुबह धूप में रेल
यूं पड़ी मिलती
जैसे सांप ने
उतारी हो केंचुली
पेड़ों - पक्षियों -जीवों ने भी
जीवन का भारी चोला
उतार फेंका हो
शुक्रवार, 9 अगस्त 2013
मन्त्रमुग्धा
बरसों बाद
देखी देह
निर्वसन
मछली -सी
बल खाती
अपने में
मन्त्रमुग्धा
बरसो बाद
देखी देह
उसने भी
निर्वसन
कांटे-सी
तीखी
बींधती
बीच में था जल
ठहरा
पिरोई जा रही थी
जिसमे
आवा-जाही
जीवन
मृत्यु
की
देखी देह
निर्वसन
मछली -सी
बल खाती
अपने में
मन्त्रमुग्धा
बरसो बाद
देखी देह
उसने भी
निर्वसन
कांटे-सी
तीखी
बींधती
बीच में था जल
ठहरा
पिरोई जा रही थी
जिसमे
आवा-जाही
जीवन
मृत्यु
की
मुझे चाहने वाला ईश्वर होगा
मुझे चाहने वाला
ईश्वर होगा
मुझ पर बिखरे तारो को
अपने होटो से चुनता
रखता सीने पर
अपने
वह रात को पसरा होगा
रात की तरह
मेरी देह उसे
धारेगी
सपने में तारो की गुहार होगी
हमे ईश्वर से बचाओ
तब मै उन्हें अपने बालो में
छिपा लूंगा
तब तुम आओगी
मेरे सर को
अपने सीने से लगा
गुम
हो
जाने
ईश्वर होगा
मुझ पर बिखरे तारो को
अपने होटो से चुनता
रखता सीने पर
अपने
वह रात को पसरा होगा
रात की तरह
मेरी देह उसे
धारेगी
सपने में तारो की गुहार होगी
हमे ईश्वर से बचाओ
तब मै उन्हें अपने बालो में
छिपा लूंगा
तब तुम आओगी
मेरे सर को
अपने सीने से लगा
गुम
हो
जाने
सोमवार, 5 अगस्त 2013
सदस्यता लें
संदेश (Atom)