रात की रेल
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घने जंगल को चीरती
दौड़ी जाती
धड़ -धड़ --धक
झांकता हर खिड़की से
एक ही चेहरा
बाहर हर पेड़ की हर पत्ती
हर जीव हर पक्षी हर रंग में
मैं अपनी ही जगह घूमता
रेल अपनी पूंछ में बांधे
घुमाती
जंगल समूचा
किसी सुबह धूप में रेल
यूं पड़ी मिलती
जैसे सांप ने
उतारी हो केंचुली
पेड़ों - पक्षियों -जीवों ने भी
जीवन का भारी चोला
उतार फेंका हो
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घने जंगल को चीरती
दौड़ी जाती
धड़ -धड़ --धक
झांकता हर खिड़की से
एक ही चेहरा
बाहर हर पेड़ की हर पत्ती
हर जीव हर पक्षी हर रंग में
मैं अपनी ही जगह घूमता
रेल अपनी पूंछ में बांधे
घुमाती
जंगल समूचा
किसी सुबह धूप में रेल
यूं पड़ी मिलती
जैसे सांप ने
उतारी हो केंचुली
पेड़ों - पक्षियों -जीवों ने भी
जीवन का भारी चोला
उतार फेंका हो
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