गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

धोरों पर मांड राग में ऊंटनी की चाल सी कोई आवाज

मूमल धोरों पर एक कामना हिरणी सी
जिसे अल्लाह जिलाई बाई ने बरसों बाद अपने कंठ में बसाया.

चांदनी रात में धोरों पर बेसुध कोई छाया
जिस पर बेसुध छाया देखती है 
लाल ओढने में पलकें मुंदी है और होंट हल्के से खुले हैं 
जैसे कोई जाप करते करते सपने की बावड़ी में उतर गया हो .
....अभी अभी .

देखने वाला अपनी छाया में किसी की छाया का घुलना देखता किसी की साँसों को पीता है .

धोरों पर मांड राग में ऊंटनी की चाल सी कोई आवाज उसे कहती है
 ....हाले तो ले चालूँ मरवण देस.

मूमल धोरों पर ......
उसकी दोनों पलको के मध्य कोई हल्की गुलाबी पंखुड़ी रख गया है  ...

जो सपने के जल पर थिर है .

ठोडी पर जो आधा चाँद था 
वह फिसल कर सीने पर पिघलने लगा .

और उधर अल्लाह जिलाई बाई का आवाहन 
.....हाले तो ले चालूँ रिझालू रे देस
गा कर कोई मूमल हुआ जा रहा .....

दूर खेजड़ी पर कमेड़ी की कूक से 
रात की  हूक मूमल के ओढने को फड़फड़ा रही .


एक छाया उस ओढने में झांकती सी बुदबुदाती है .......मूमल .....चलें .....
बालू रेत पर नागिन पूछती है कहाँ जायेगी मूमल.

छाया घुल जाती है कंठ में 

सूखे पोखर जल की छल छल स्मृति में 
हरिया जाते 
जिसमे मूमल अपना चेहरा देखती 
जिसमें कोई अदृश्य हाथ उसके चेहरे पर बिखरे बालों को हटाता 
कान के नीचे कुछ लिख देता है 

मूमल की हथेली पर वह लिखा काजल की टिकी सा 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें