शनिवार, 22 जून 2013

अभी बाहर कहीं वे दो देह दूर से दूर होती तारो के मध्य तनी रस्सी है.

तुम्हारे कमरे में वह तुम्हारे सामने कुर्सी पर वैसे ही बैठा रहेगा जिस तरह तुम उसके सामने अपनी कुर्सी पर पलकें मूंदे बैठे हो.
दोनों ने नीले कपड़े पहन रखे हैं.
जो तुम्हे कहना है वह वो सुन लेगा पर कहेगा नही.
जो वह कहेगा उसे तुम सुन नही पाओगे.

एक देह उस कमरे में कुर्सी पर  बैठी होगी जिसमे से कोइ चला जाएगा.

वह तुम्हारे लिए है. जो कहोगे वही सुनेगा....पलके मूंदे रहेगा.तुम उसके कानो में कुछ शब्द फूंक दोगे. जिसे प्रस्थान कर गयी देह को सुनना था....
.....इधर किसी दूर देश में भी एक देह महसूस करती है की वह किसी के कमरे में कुर्सी पर पलके मूंदे बैठी है और उसके कानो को किसी के होंट छू रहे हैं.
दोनों की देह वहां  नही है जहां वह बैठे दीखते हैं.
दोनों ने अपनी देह को छाया हीन कर लिया है,
वह उसे याद करता है तो उसकी आत्मा का पारदर्शी जल सिहर जाता है, सकुचा जाता है.
जिसमे कामना के पेरो को चूमे जाने के अक्स डूब जाते है.
एक नीली...झीनी चादर उसके चेहरे पर डाल कोई उसी के हाथो से उसे छूता है.

ईश्वर के आंगन में किसी की देह पत्थर इस कदर पथराया सा पिघलता है कि समूचे जगत में वह आकाश सा तन जाता है जिसमे तारो पर रखे शोक के वस्त्र..विलाप भीग जाते है.

अभी अपने अँधेरे कमरे में दोनों की कुर्सियाँ नजदीक आ गयी है.
अभी बाहर कहीं वे दो देह दूर से दूर होती तारो के मध्य तनी रस्सी है.
जिन पर एक आंसू ठिठका है....जिसमें वे शब्द है .....हाँ वे ही.....हाँ .....वे ...ही ....

3 टिप्‍पणियां:

  1. आह..!! निशब्द ...........
    ईश्वर के आंगन में किसी की देह पत्थर इस कदर पथराया सा पिघलता है कि समूचे जगत में वह आकाश सा तन जाता है ......ह्ह्ह !! भावपूर्ण ...

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  2. विलक्षण ..........अप्रतिम .........अदभुत . मृत्युगंधा यह कविता वर्तमान काव्य में बतौर सलेबस पढ़ी जानी चाहिए . बधाई अनिरुद्ध उमट जी और आभार मनीषा कुलश्रेष्ठ जी .

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