शनिवार, 29 जून 2013

में उनके सपनों की इबारत मरी चींटियों से लिखता हूँ

आकाश नीला था शायद कि मेरी चादर जिस पर मै कोई शव था नीद में .
खाट पर पिता के पैर बाहर ही निकले रहते जैसे ज़रा ज़रा सपने जिन्हें माँ अपने झीने ओढने से ढक देती .

एक दिन पिता की खाट  की जगह माँ लेटी तो पिता ने उसके गोरे…गुलाबी चेहरे को देखते कुछ कहा जिसे ठंडे आँगन  पर पड़ी ठंडी देह ने सुना और उसी आवाज में कुछ  दिन के विलम्ब का संदेश रवाना कर दिया  था जिसे पिता ने सुना और माँ  की अर्थी को कंधा देने लगे-  जिनके पीछे मैं  था उनकी छाया में घुलता .

आँगन खुद क्या शव है
आकाश खुद क्या
अग्नि खुद क्या
जल खुद  क्या
छाया खुद क्या
प्रश्न खुद क्या
सपने खुद क्या
आवाज खुद क्या

शव
मृत्यु
जीवन
आवागमन

इन  सींखचों में कोई बदहवास घूमता सर पटकता लहूलुहान  होता ईश्वर को हंसाता है उसकी हंसी में उसकी दरकती छाया सूने विलाप में एक सबसे नन्हे  लगभग अदृश्य से जीव पर सवार हो सांस लेती है, जिसकी कोई  छाया नही .

घर में  अभी सीढीयों पर लाखो चींटियाँ मरी पड़ी है जिन्हें पिता रोज आटे  ...मिश्री ...पताशे  का भोग देते थे .अभी पिता  और माँ मुझे इस शब्दों को छूते देख सोचते होंगे  कि ये शब्द नही मरी चींटियाँ  है .

में उनके सपनों की इबारत मरी चींटियों से लिखता हूँ


8 टिप्‍पणियां:

  1. कोटान कोट नमन ....

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  2. शब्दों का अद्भुत् संयोजन...incredible

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  3. हाँ, इसमें कविता है।
    ( जिन पंक्तियों को गद्य के क्रम में रखा है,
    उन्हें कविता के क्रम में रख दें तो कोई हर्ज नहीं होगा। )

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  4. dard sach mein rongte mein bahne laga..

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  5. इन शब्दों से दुःख झर रहा है...

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  6. इन सींखचों में कोई बदहवास घूमता सर पटकता लहूलुहान होता ईश्वर को हंसाता है उसकी हंसी में उसकी दरकती छाया सूने विलाप में एक सबसे नन्हे लगभग अदृश्य से जीव पर सवार हो सांस लेती है, जिसकी कोई छाया नही .
    ...............
    शब्द नही मरी चींटियाँ है ये ...... उफ्फ्फ ....रेखा के आर या पार ....

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