शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

यदि पिता कहीं छिप कर देख रहे होंगे


मैं एक विस्मृत सड़क पर चला गया था. अकेली और अपनी उदासी में तपती बिखरती सड़क. जिस पर चलते चलते एक सीमा बाद अहसास होता कि मैं सड़क पर नहीं बल्कि खुले मैदान में चल रहा हूं. वह सड़क और मैदान एक दूसरे में खोए थे. मैं उनमें खोता फिर बाहर आ गिरता तब खुद पर झुके मुझ को सड़क सूनी आंखों से देखने लगती. इसी सड़क पर कभी मैं अपने पिता के साथ दातुन करता साथ चलता था… वे सुबह की सैर के नाम सैर तो न्यूनतम करते बल्कि उनके पैरों में किसी परेड की सी झलक अधिक दिखायी देती थी. चाहते रहे थे कि सैर के वक्त मैं उन्हें देखूं और सीखूं कि कैसे पैर से पैर मिला कर अनुशासित पदचाप के साथ एकाग्र हो चला जाता है. कैसे इससे हमारा भटकता मन, ध्यान नियंत्रण में रहता है. इसी एकाग्रता से, नियंत्रण से तब हम सही अर्थो में दातुन कर पाते हैं. हमें बीच में अधिक समय नहीं रहना चाहिए बल्कि दांतों को दातुन के हवाले या दातुन को दांतों के हवाले कर देना चाहिए. फिर हमें देखना चाहिए कि वे किस कर्मठता, संलग्नता, निष्ठा से एक दूसरे के प्रति अपना धर्म निबाहते हैं.
उस सड़क पर मैं था.
लगा जैसे पिता अपनी परेडनुमा सैर में मगन कहीं बहुत दूर निकल गए हैं और यह भूल गए हैं कि उनके साथ मैं भी था. पहले ऐसा होने पर मैं अपनी चहलकदमी को दौड़ने में तब्दील कर उन तक पहुंच जाता था और पास आते ही यूं चलने लगता जैसे यूं ही चलता आ रहा हूं, पीछे से ही.
वे पीछे नहीं देखते थे.
मैं बहुत देर तक आगे देख कर नही ंचल सकता था. मुझे थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीछे देखने की तड़प उठती कि देखें कितनी दूर आ गए हैं… कितना पीछे छूट गया है.
तब भी मैं पीछे छूट गए और आगे बचे का सही सही अनुमान नहीं लगा पाता था… आज तो बिल्कुल ही नहीं.
आज तो….
जहां खड़ा हूं वहां से न आगे बढ़ पा रहा हूं न पीछे जा पा रहा हूं. शाम का ठिठका अंधेरा अब जम चुका है.
मैं उस जमने में कहीं धंस गया हूं. सड़क और मैदान की जगह अंधेरे का पसारा दीखता है.
दूर से यह दृश्य कैसा दीखता होगा ?
यदि पिता कहीं छिप कर देख रहे होंगे (जब कि उन्हें छिप कर देखने की आदत बिल्कुल न थी और मुझ में तब से अब तक कुछ भी स्पष्टतः खुल कर देखने की हिम्मत नहीं है) तो उन्हें मैं अंधेरे में डूबे सड़क और मैदान के गाढ़े तरल में किसी ढीठ ठूंठ सा खड़ा दीख रहा होऊंगा.
मैं ठूंठ सा खड़ा था और मेरे सिर पर चन्द्रमा किसी नन्हीं चिड़िया सा फुदकता आ बैठा था. पहले तो कुछ देर मैंने यह सोच कर सांस भी रोके रखी कि कहीं सांस की हलचल से आवागमन से यह उड़ न जाए … इसकी सांसें हड़बड़ा अपना मार्ग न भटक जाए…. फिर धीमे धीमे सांसों के काफिले को आगे-पीछे जाने की इजाजत किसी कुशल यातायात नियंत्रक की तरह देने लगा.
उनकी आवाजाही से जब मेरी देह सध गयी तो मैंने उसी सधाव की लय में उस चन्द्रमा ( या चिड़िया ) को अपनी हथेली में ले लिया. वह कोई ऐसा आईना था या चांदी का चमकता कोई ऐसा थाल जिसमें कभी तो चन्द्रमा रह जाता कभी केवल चिड़िया ….
और…. कभी चन्द्रमा की छाती में अपनी उड़ान में स्थिर चिड़िया…. मैंने इसी दृश्य को अपने भीतर उतारा और बाहर आ उसी सधाव से लय से पुनः चन्द्रमा को मेरे सिर के ऊपर थोड़ा सा ऊपर रख दिया… यूं कि झटका न लगे. यूं जैसे कोई दोना… कोई कागज की नाव धारा को सौंप दी जाए और धारा पहले तो कुछ संकोच कुछ व्यस्तता से परेशान दीखे फिर सहज रूप से समर्पण को स्वीकार ले और आगे बढ़ जाए.

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