रविवार, 29 सितंबर 2013

तुम एक साथ भरे हुए…उफनते हुए और खाली…खोखले कैसे रह लेते हो ?


प्रिय ..
मुझे समझ नहीं आता कि तुम हो क्या ? कभी तो तुम ठंडे-मीठे जल से लबालब कुंए से लगते हो जिसमें से यदि जल को नहीं खींचा गया तो वह उफन कर बाहर आ जाएगा और जब उसे खींचने के लिए पात्र भीतर उतारते हैं तो वह भीतर और भीतर उतरता जाता है.
तुम एक साथ भरे हुए…उफनते हुए और खाली…खोखले कैसे रह लेते हो ? तुम्हें हो क्या गया है ? एक बार क्यों नहीं अंतिम स्तर पर की गई कार्यवाही की तरह खुद को रोक लेते.
मैं अब और अधिक इंतजार नहीं कर सकती.
मुझे तत्काल अपने निर्णय से अवगत कराओ. वर्ना इसे मेरा अंतिम पत्र समझो. यह और बात है कि इसके साथ ही तुम्हारे अन्तहीन पत्रों का विलाप…जिरह शुरू हो जाएगी और तुम इससे भी भली भांति परिचित हो कि तुम्हारी उस तरह की किसी बात का मुझ पर असर नहीं होगा. और मेरे लिए यह बहुत दुखद होगा. क्या तुम यह चाहते हो कि मुझ पर तुम्हारी किसी बात का कोई असर न हो ?
कहीं तुम यही तो नहीं चाहते ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें