रविवार, 29 सितंबर 2013

मैं चाहता हूँ न तो तुम मुझे आकंठ झूठ में डूबा समझो न ही मेरी बात में पारदर्शी सच्चाई ढूंढो.


प्रिय…
रात मैं सो न सका. इस वजह से मेरा बदन टूट रहा है. मगर तुम्हारा पत्र आए इतने दिन हो गए हैं
कि जवाब के इन्तजार में तुम आइन्दा मुझे पत्र न लिखने के लिए खुद को समझा रही, बटोर रही, कस रही होगी यही सोच किसी तरह थकान को भुला तुम्हें लिखने बैठ गया हूं.
मेरे सपनों को लेकर तुम इतनी परेशान हो, यह जान मुझे बहुत चिन्ता और दुख हो रहा है. इस बार के तुम्हारे पत्र में तो चिन्ता का स्थान आशंका ने ले लिया है. तुम्हारे पत्र की आशंका-भय से मैं खुद के बारे में अनुमान लगा रहा हूं.
तुमने लिखा कि जो कुछ मुझे लगता है वह मैं बगैर यह चिन्ता किए कि कोई इसे पढ़ रहा है या कि पढ़ेगा, बस लिखता चला जाऊं और तुम्हें भेज दूं, भेजता रहूँ.
मेरी जान, मैंने यह करने की बहुत कोशिश की. कई बार लिखने बैठा, मगर कुछ ही देर बाद लगने लगता जेसे यह वह नहीं जो मेरे भीतर चल रहा था. जो मैं सोच रहा था. यह तो मैं कुछ और ही लिखने लगा हूँ . बस्स. फिर वही मौन.
..रुकावट…थकान…निराशा…संशय…भय.
फिर तुमने यह सुझाया कि मैं यह बात ही दिमाग से निकाल दूं कि मैं तुम्हारे लिए लिख रहा हूँ . बस यही सोच लिखने बैठ जाऊं कि मैं तो वह बात पहले ही पढ़ चुकी हूँ , तुम चाहे लिखो या न लिखो. मगर इससे भी मुझे कोई राहत नहीं मिली.
सच कहूं तो मैं पिछले लंबे अर्से से तुमसे छल करता रहा हूँ. किसी न किसी रूप में. कि हाँ, इस बार नई शक्ल में लिख रहा हूँ. हद तो तब हो गई जब इन दिनों मैंने महसूस किया कि यह मेरी आदत में तब्दील होता जा रहा है.
आशा है यह सब सुझाते तुम मुझे पागल या बीमार नहीं मान रही हो. यह बात और है कि पागल और बीमार के फर्क को इस वक्त मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.
मैं इन दिनों सबस से झूठ बोलता हूँ. सब कुछ झूठ. मैं जो कुछ नहीं करता, नहीं देखता वही दिन में सबको बताता रहता हूँ और मुझे यह देख दुखद हैरानी होती है कि किसी को भी मेरी बात पर कोई शंका-संशय नहीं होता.
इस वक्त इसलिए तुम्हें पत्र लिखते वक्त मेरी आत्मा कांप रही है कि कहीं तुम मेरी बात को झूठ न मान लो.
कि मेरी बात को हूबहू तुम सच न मान लो.
मैं चाहता हूँ न तो तुम मुझे आकंठ झूठ में डूबा समझो न ही मेरी बात में पारदर्शी सच्चाई ढूंढो.
मैं तुमसे पीछा नहीं छुड़ाना चाहता मगर मैं यह भी नहीं कह सकता कि तुम्हारे पूरे अहसास के बगैर मै रह लूंगा.
शायद मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ यूं रहो जैसे मैं खुद के साथ आधा-अधूरा रहता हूँ .
तुम यदि कुछ कर सकती हो मेरे लिए तो यही कि अपना विश्वास मुझसे टूटने न दो.
पता नहीं यह पत्र है या फिर किसी पलायन का खुलता मुंह. यदि यह पत्र तुम तक पहुंच जाए तो….खैर छोड़ो.
अभी यह पोस्ट कहां हुआ है?
अब मेरी पलकों पर नींद के भारी…गर्म….ठंडे पत्थर गिर रहे हैं.
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मैं शायद सो गया था. नींद किसी चट्टान की तरह मेरी देह पर थी जिसके नीचे मैं दबा पड़ा था.
शाम को करीब छह बजे मेरी ऑंख खुली. और मुझे खुद को कस कर पकड़ाना पड़ा. अपने भीतर के इतने हल्केपन से मैं डर गया था. लगा यदि खुद को कस कर नहीं पकड़ा-जकड़ा तो उड़ जाऊंगा. कमरे में हर चीज या तो औंधी पड़ी थी या उड़ रही थी. मेज पर पानी का गिलास गिरा पड़ा था…. सारे कागज गीले हो चुके थे. अचानक मुझे पत्र का ख्याल आया. मैंने खुद को कसना छोड़ा और उड़ता सा मेज तक पहुंचा. कहीं वह पत्र न भीग गया हो, बड़ी मुश्किल से लिखा था. अगर इस बार पोस्ट न हुआ तो फिर लंबा अंतराल जम जाएगा.
मेज पर सारे सफेद कागज भीग चुके थे.
वह पत्र कहीं नहीं था.
मैं बहुत देर तक कुर्सी पर बैठा उसे ढूंढता रहा, हाथों में हरकत कम, नजरों में बेचैनी ज्यादा थी.
केवल सामने रैक में घड़ी के नीचे उसका अन्तर्देशीय दबाया पड़ा था. जिसे मैंने पिछले सप्ताह आने के बाद से खोला नहीं था. यही सोच कर कि उसके भीतर क्या लिखा है यह मैं जानता हूँ , यही सोच कर मैंने दिन में उसे पत्र लिखा था कि….मेरी आँख लग गयी.
अब वह पत्र उन गीले कागजों में कहीं नहीं दीख रहा था.
मैं कुर्सी पर पूरी तरह लुटा पिटा खुद को देख रहा था. खुद पर शर्म भी आ रही थी. मैंने जबकि कभी नहीं चाहा था कि कोई भी मुझे या खुद मैं भी खुद को यूं देखूं कि शर्म आने लगे. हिकारत होने लगे.
सामने घड़ी के नीचे तुम्हारे पत्र को देख मेरी रुलाई फूटने लगी.
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