बुधवार, 25 सितंबर 2013

मैं छत पर खड़ा सबसे धुंधला तारा ढूंढ रहा था.


प्रिय…
मैं तुम्हें मजबूर कभी नहीं करना चाहती. मगर यह बेचैनी तुम्हारी थी कि तुम मुझे कुछ बताना..कहना चाहते थे. मैं फिर कहती हूँ तुम मुझे भूल जाओ और मुझे बताओ. अब बस इतना ही कहने के लिए यह पत्र लिखा है. इस आशा में कि किसी दिन तुम, किसी भी दिन, तुम केवल मुझसे साझा करोगे. यदि तुम्हें मालूम हो कि वह क्या है जो तुम साझा करना चाहते हो तब भी…और तब भी जब कि तुम्हें मालूम न हो कि तुम मुझसे क्या साझा करना चाहते हो.
हर तरह से होना एक जादू है. जैसे कि हर तरह से होना जादू नहीं भी है. इसलिए प्रतीक्षा और नाउम्मीदी दोनों में ही मैं तुम्होरे साथ भी हूँ और नहीं भी.
****
मैं छत पर खड़ा सबसे धुंधला तारा ढूंढ रहा था.

धुंधलका मेरी प्रकृति के सबसे नजदीक की कोई अनिवार्य नियति थी … है.
पिता कहते थे कि कुछ भी कहो, लिखो तो पहले ही शब्द से नाकेबन्दी कर दो. कील ठोक दो. कोई है जो इस इलाज के अलावा किसी भी तरह काबू में नहीं आने वाला. वह दुश्मन है या सगा… इससे फर्क नहीं पड़ता. ऐसा कील ठोको कि वह बिलबिला उठे और अपने जख्म तक उसकी जबान न पहुंच सके. उसे अपने वश में कर लो. वशीकरण के बाकी सभी मंत्र यन्त्र व्यर्थ है.
मगर मेरा मानना कुछ और ही था, मानना भी क्या था बल्कि मेरे लिए कोई भी कील एक हीबार में सही जगह ठोक देना असंभव था. यहां तो पहली कील मैं खुद में ही उतरते महसूस करता था. मैं कील हाथ में लिए उस जगह तक अगर किसी तरह पहुंच भी जाता तो मन में यह ख्याल उठता कि कील ठोक देना आखिरी तरीका है. इसमें नया क्या है ? मुझमें औरों में फिर फर्क ही क्या है ? कील हाथ में हो सामने की जगह में उसकी सिहरन फूटने लगे यह कहीं ज्यादा बुनियादी सफलता है. इस बुनियादी सफलता के मौलिक सम्मोहन में यदाकदा झूमता-झूलता भी रहता.
मगर उधर मेरे खंड खंड व्यक्तित्व की एक व्यथा कथा और भी थी. जब में कुछ कह लेता तो अस्पष्ट स्वरों का कोहराम हैरान परेशान किए रहता कि जो मैं कहता हूँ वह मेरे जिए गए से सर्वथा भिन्न… विपरीत होता है. भयावह अन्तर का ऐसा पाट जिसे मैं किसी भी दलील से भर नहीं पाता था.
तब या तो यह डायरी मुझे अपने में पनाह देती या वे पत्र जो मैं लिखते न लिखते जीता रहता था, जिनकी अदृश्य निरंतरता से मेरा खंड खंड व्यक्तित्व किसी तरह निर्णायक टूटन से बचा रहता था.
मैं झूठ और अवास्तविक के बीच की थकी…लगभग निरुद्देश्य आवाजाही में जागता… ऊंघता रहता.
सबसे धुंधले … कंपकंपाते तारे की तरह.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें