गुरुवार, 4 जुलाई 2013

बंद कमरे में पड़े हारमोनियम को कबूतरों की चोंच गूंगा कर देती है

हम देह से परे के असीम में रहते हैं  अदृश्य ...पारदर्शी ....वहां भी दुःख की भिनभिनाहट आ ही जाती है .

मेरे कंठ में आंसुओं का बर्फीला गोला तपता है और मेरी आँखों में रेतीले टीले उफनते .

कहीं कोई है जो खाता है मेरे कानो में पहुँचने वाले शब्दों को.
सूनी सडक पर एक शराबी मेरे गले लग फफक पड़ता है
अँधेरे में हरी बेंच के नीचे एक काला पिल्ला लेटा है  जाने कब से जिसे उसकी काली माँ बार बार सूंघ कर तारो की ओर देखती है .
बंद कमरे में  पड़े हारमोनियम को कबूतरों की चोंच गूंगा कर देती है

न तुम मरोगे न वह
क्योंकि
न तुम
ये
हो

वो

हम अपनी अमरता की बात करते देखेंगे हम में से जाने कौन सिसकने लगेगा

आज शाम मेरी मृत्यु में मेरे मृत पिता ने देखा कि वे अधमरे है और मैं मर गया हूँ
आज शाम मेरे रक्त में पड़ी गाँठ कुछ और कस गयी और मेरा दाहिना हाथ सुन्न हो मुझे अजनबी काले मृत पिल्ले सा पथरीली आँखों से देख रहा था .
आज अभी अंधेरी तपती रात में उस सूनी सडक पर सूनी बेंच के नीचे मैं अपनी जीभ काट रहा हूँ
कान ......भी
पुतलियाँ भी मैंने बाहर निकाल दी है
हाथ पैरों के नाखून भी मैंने उतार फेंके है

मेरी देह पर चीलों .....कव्वो ....गिद्धों की छाया का घटाटोप है

किसी की नीद में मैं  टूटी सीढ़ी
अंधी बावड़ी
फूटी हांडी
बिसूरता चूल्हा

आज शाम मेरे पिता और माँ ने कहा कि चलो अनिरुद्ध को भी यहाँ ले आते है
अभी आधी रात को मेरी देह श्मशान में या तुम्हारे कमरे में उड़ने को आतुर है

जो मुझ से नाराज है
उनके तपते ललाट पर मेरे जाने की ठंडी छाया का स्पर्श है

विदा




3 टिप्‍पणियां:


  1. मेरे कंठ में आंसुओं का बर्फीला गोला तपता है और मेरी आँखों में रेतीले टीले उफनते.....
    कहीं कोई है जो खाता है मेरे कानो में पहुँचने वाले शब्दों को.
    हम अपनी अमरता की बात करते देखेंगे हम में से जाने कौन सिसकने लगेगा......................


    अभी आधी रात को मेरी देह.......उफ्फ्फ्फ्फ़ !!
    एक एक शब्द .....एक एक पंक्ति ..... कितनी कहानियों को एक साथ समेटे ...ओह..! दर्द का एक सैलाब ...बहा ले गया सभी भाव ...शब्द मूक ..अह्हह्ह !

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  2. Ye ahsaas ki , jo nhi hai, wo yahi kahi gandh sa ud rha hai...shayad kahin gahre,bahut gahre....
    Aur....jo hai, wo apna bajood usi ko saunp dena chahta hai jo nahi hai.....ye shabd kitne kaanch k se paardarshi ho gaye hain..

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  3. जाने कितनी बार ...पढ़ लिया ,और हर बार सैलाब की तीव्रता पहले से ज्यादा .....और गहरे ...

    अभी आधी रात को मेरी देह श्मशान में या तुम्हारे कमरे में उड़ने को आतुर है

    जो मुझ से नाराज है
    उनके तपते ललाट पर मेरे जाने की ठंडी छाया का स्पर्श है

    विदा...............( किसी का जाना कभी ठंडी छाया का स्पर्श नही होता .... बल्कि जलाता है उससे कहीं ज्यादा ....जो ना राख होता है ...ना वजूद में रहता है .....सुलगता है ..दिखाई नही देता ...जो दिखता है वो नही होता ...उफ्फ्फ्फ्फ्फ़ !!!! अच्छा लिखने के लिए बधाई ...पर उस लेखन के पीछे भोगी गई ...इंतहा का एहसास ,,,धरा ..फावड़ा ..बीज ..और अंतत: नम ...

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